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गोरा

1 गौरा [ ३७६ उसकी छाती फूल उठी, फैल गई। मनुष्यत्व की मयांदा तो रखनी ही होगी। परेशने पूछा-धर्म विश्वासके बारेमें ब्राह्म समाज के साथ तुम्हारा मन तो मिलता है न विनय जरा देर चुप रह कर बोला-आपसे सच बात कहूँ, पहले मुझे ख्याल था कि मेरा शायद एक कुछ धर्म विश्वास है, और उसे लेकर उसके लिए अनेक लोगों के साथ अक्सर बहुत कुछ वाद विवाद भी किया है, किन्तु आज मैंने निश्चय जान लिया कि धर्म विश्वास मेरे जीवन में परि रणत नहीं पा सका-पक्का नहीं हुआ। और इतना कुछ जो मैं समझ सका हूं, सो केवल श्रापको देखकर । मेरे जीवन में धर्मका कोई सत्य प्रयोजन नहीं पड़ा, और उसके प्रति मेरा सत्य विश्वास नहीं पैदा हुआ,इसी कारण मैंने कल्पना और युक्ति कौशलके द्वारा इतने दिन हम लोगोंके समाजके प्रचलित धर्मको तरह-तरहकी सूक्ष्म व्याख्यानांसे केवल तर्क निपु- एताका रूप दे रक्खा है। यह सोचनेकी मुझे जरूरत ही नहीं होती कि कौन धर्म सत्य है। परेश वाबूके साथ वातें करते-करते ही विनय अपनी वर्तमान अवस्था के अनुकूल युक्तियोंको आकार देकर साक्षात् उपस्थित करने लगा । यह काम वह ऐसे उत्साहके साथ करने लगा, जैसे अनेक दिनके तर्क-वितर्कक बाद वह इस स्थिर सिद्धान्त में आकर पहुँचा है। तथाति परेश वाबूने और भी कुछ दिनका समय लेने के लिए उसस कहा, और अपने इस कथन पर खास तौर पर जोर दिया। इससे विनत्र ने सोचा, उसकी हड़ताके उपर परेश बाबू का संशय है। अतएव उसका आग्रह भी उतना ही बढ़ने लगा। उसका मन एक सन्देह-रहित स्थान पर आकर खड़ा हुआ है, किसी कारगसे अब उसके जरा भी डिगनेकी सम्भावना नहीं है-यही उसने बार-बार कहना शुरु किया। दोनों ओर से ललिताके साथ विवाहका कोई जिक्र ही नहीं हुआ। इसी समय घरके किसी कामके लिए वरदासुन्दरीने वहाँ प्रवेश किया जैसे विनय वहाँ उपस्थित ही नहीं है, ऐसे भावसे अपना काम करके वह