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गोरा [३८१ दीक्षा का प्रस्ताव और कुछ दिन पहले ही अगर होता तो हम लोगोंको इतना अपमान, इतना दुःख, न उठाना पड़ता। परेश ने कहा-हम लोगों के दुःख कष्ट या अपमान की तो कोई बात हो नहीं रही है-विनय बाबू दीक्षा लेना चाहते हैं । वरदासुन्दरी कह उटी-केवल दीक्षा ? विनयने कहा-वहीं अन्तर्यामी, जानते हैं कि आप लोगो का दुःख अपनान सत्र में ही है। परेश--देखो विनय, तुम धर्म की दीक्षा लेना जंः चाहते हो, उने एक भावान्तर विषय न करो। मैं नुमसे पहले और भी एकदिन रह चुका हूँ कि हमार किसी सामाजिक सङ्कट में पड़ने की कल्पना करके नुन किसी गुरुतर कार्य में प्रवृत्त न होना | वरदा०-यह तो टीक है, लेकिन हम सबको जालमें डालकर चुप होकर बैठ रहना भी तो इनका कर्तव्य नहीं है। परेश.--चुप होकर बैठ न रह कर चंचल हो उटनेसे जालमें और मी उलझ जाना होता है, और मजबूत गाँट पड़ जाती है । कुछ-न-कुछ कर उठना ही कर्त्तव्य नहीं कहलाता-अनेक समय ऐसा होता है कि कुछ न कुछ करना ही सबसे बढ़कर कर्त्तव्य समझा जाता है। वरदा०- -यही होगा। मैं मूर्ख स्त्री ठहरी, सब बातें अच्छी तरह समझ नहीं सकती। अब क्या बात पक्की हुई यही जानकर मैं जाना चाहती हूँ----मुझे बहुत कान करने हैं ! विनयने कहा-परसों रविवारको ही मैं दीक्षा लूँगा। मैं चाहता हूं, अगर परेश बाबू। परेश कह उठे-जिस दीक्षासे मेरा परिवार किसी फलकी आशा कर सकता है, वह दीक्षा मैं नहीं दे सकता | तुमको इसके लिए ब्राह्म-समाज में प्रार्थना-पत्र भेजना होगा। विनय का मन उसी दम संकुचित हो गया। ब्राह्मसमाज में बदस्तूर दीक्षाके लिए प्रार्थना करने के लायक मन की अवस्था तो विनय की नहीं