पृष्ठ:गोरा.pdf/३८४

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वरदासुन्दरीने जब हारान बाबूको बुलाकर सब बातें कहीं तब वह कुछ देर गम्भीर भाव धारण किये बैठे रहे और बोले-इस विषयमें एक बार ललिता से भी पूछ लेना आवश्यक जान पड़ता है। ललिताक अानेपर हारान बाबू अपने गाम्भीर्यकी मात्राको ऊपर चढ़ा कर वोले-देखो ललिता, तुम्हारे जीवन के एक बहुत बड़े दायित्वका समय ना पहुंचा है। एक ओर अपना धर्म और दूसरी ओर अपने मन की. प्रवृत्ति, इन दोनोंके बीच में तुमको मार्ग बनाकर चलना होगा। ललिता कुछ न बोली, चुप हो रही। हारान बाबूने कहा- शायद तुम सुन चुकी हो, तुम्हारी अवस्था पर दृष्टि करके या किसी दूसरे ही कारणसे विनय बाबू आखिर हमारे समाजमें दीक्षा लेने को राजी हुये हैं। ललिताने पहले यह बात न सुनी । सुननेसे उसके मनमें क्या भाव उत्पन्न हुआ, इसेभी उसने प्रकाशित न किया। उसकी आँखें मानों निर्मिमेष हो गई। वह पत्थरकी प्रतिमाकी भांति स्थिर हो बैठी रही। हारान बाबू ने कहा--विनयकी इस वाध्यतासे परेश वाबू वास्तवमें बड़े प्रसन्न हैं । किन्तु इसमें वास्तविक आनन्द होने की कोई बात है या नहीं, यह तुम्हींको निश्चय करना होगा । इस लिये मैं आज तुमसे ब्राह्म- समाजके नाम पर अनुरोध करता हूं कि अपनी उन्माद-भरी प्रवृत्तिको तब तक एक ओर हटा रखो, और केवल धर्मकी अोर दृष्टि करके अपने मन से पूछो-इसमें प्रसन्न होनेका यथार्थ कारण क्या है ? ललिता अब भी कुछ न बोली । हारान बाबूने समझा, ललिता मेरे मतमें आ गई है। अतएव वह दूने उत्साह के साथ बोले-दीक्षा ! दीक्षा जीवनकी एक पापनी शक्ति है, क्या वही बात आज एक अनधिकारी से. ३८४ 1