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गोरा

गोरा [३८७ एक चिराग जला हाथमें ले, ललिताके शयन गृहमें जाकर देखा, वह अब भी बिछौने पर न सोकर एक आराम कुरसी पर पड़ी है। ललिता नुरन्त उठ बैठी और बोली-मां तुम कहाँ गई थी। ? उसके वरमें कुछ तीव्रता थी । वह पहले मुन चुकी थी, कि माँ सतीशको लेकर विनयके घर गई हैं । वरदानुन्दरीने ऋहा—मैं विनयके घर गई थी। ललिता--त्यों? इस क्योंने वरदानुन्दरीके मनमें कुछ क्रोध हुआ। ललिता समझती है, मैं केवल इसका अनिट ही करती किरतो हूँ । जा तू बड़ी अकृतन है ? वरदानुन्दरोनेकहा- क्यो गई थी, यह मैं बताती हूँ। यह कहकर विनयकी वह चिठी उसने ललिताको अाँखोके सामने रख दी। यह चिट्ठी पढ़कर ललिताका मुँह लाल हो गया । वरदासुन्दरों अपनी कार्य-सफलता प्रकट करनेकी इच्छाले कुछ बड़ा-चढ़ाकर बोली-यह विट्ठी क्या विनयके हाथसे सहज ही निकल सकती थी ! मैंने बड़ी-बड़ी युक्तियों से यह चिट्ठी उससे लिखवाई है, यह काम दूसरेसे कदापि न हो सकता । ललिता दोनों हाथोंसे मुंह ढाक कर आराम कुरसी पर पड़ रही । वरदासुन्दरीने समना मेरे सामने ललिता अपने हृदयके प्रबल वेगको प्रकाशित करने में लजाती है । वह कोठेसे बाहर हो गई। दूसरे दिन सबेरे चिट्ठी लेकर ब्राह्म-समाजमें जाने के समय वर दा- सुन्दरीने देखा ललिताने उस चिट्ठीको टुकड़े टुकड़े कर फाड़ डाला।