पृष्ठ:गोरा.pdf/३८८

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[५७] दिनको तीसरे पहर जब सुचरिता परेश वाबू के पास जाने का विचार कर रही थी तब नौकरने आकर खबर दी, एक बाबू आये हैं। कौन 'बाबू? विनय बाबू ? नौकरने कहा -नहीं, अत्यन्त गोरे रङ्गका एक लम्बा सा बाबू है। सुचरिता बोली–बाबूको ऊपर के कमरे में ले जाकर विटाो। आज सुचरिता कौन कपड़ा पहने हुए है और कैसे पहने हुए है, इसका कुछ भी खयाल उसके मनमें न था। इस समय बड़े आईनेके पास खड़ी होकर उसने देखा तो उसे वह कपड़ा किसी तरह पसन्द न आया। एक तो कपड़ा उसके पसन्द लायक नहीं; दूसरे वह भी मामूली तरहसे पहने हुए थी, जिसे देखकर वह और भी लज्जित हुई । पर उस समय कपड़ा बदलने का समय न था। काँपते हुए हाथ से आँचल और बालोंको सँवारकर, सुचरिता धड़कते हुए हृदयको लेकर ऊपरके कमरेमें गई। देखा टीक सामने गोरा कुर्सी पर बैठा है । "मौसी आपको देखने के लिए बहुत दिनोंसे ब्याकुल हो रही हैं, मैं उनको खवर दे आती हूँ" यह कह कर वह चौखटके भीतर हरिमोहिनी को लेने के लिए चली गई। आज गोराकी ओर देखते ही हरिमोहिनी एकदम आश्चर्यमें डूब गई। ऐं ! यह तो सच्चा ब्राह्मण है। मानों होमकी प्रचलित अग्नि है। मानों यह कपूरकाय महादेव है। उसके मनमें एक ऐसी भक्तिका संचार हुआ कि गोरा ने जब उसको प्रणाम किया तब वह संकुचित हो गई और अपनेको प्रणाम लेने के अयोग्य जान कुण्ठित हो उठी। हरिमोहिनीने कहा -बेटा ! तुम्हारे विषयमें मैंने बहुत बातें सुनी है, तुम्ही गौर हो ? तुम यथार्थमें गौर हो ! २८८