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गोरा

-- गोरा ३६६ काहेके लिये ? यह बात क्या ललिता नहीं जानती? इसके भीतर क्या ललिताके लिये आनन्दमय की बात कुछ भी नहीं ? अानन्दमयीने कहा-कल दीक्षाका दिन है, जवान दे चुका है-अब उसे पलटने का कुछ उपाय नहीं है । विनय तो यही कह रहा था। ललिताने आनन्दमयीके मुखकी और अपनी प्रदीस दृष्टि स्थिर करके कहा-इन सब मामलामें पक्की बातचीतके कुछ भी माने नहीं है। यदि परिवर्तन आवश्यक हो, तो वह करना ही होगा ! यानन्द-वयं तुन तुझसे लज्जा न करो। मैं सब बाते तुमसे खुलात करके कहती हूं। अनी कुछ ही देर हुई । मैं विनयको समना रहा था कि उसका वन विश्वास चाह बो और चाहे जैसा हो समाजको त्याग करना उसे उचित नी नहीं है, जलरी मी नहीं है। मुँह से चाहे. जो वह कंह, वह नी इस बातको नहीं समन्ता-बह भी मैं नहीं कह सकती । लेकिन वटी उसके मन का भाव तुमसे तो छिपा नहीं है। वह. निश्चय जानता है कि समाजको छोड़ बिना नुन लोगों के साथ उसका सम्बन्ध हो नहीं सकता। लज्जा न करो की टीक-टोक कहो। ललिताने अानन्दमयीक आगे सिर उठाकर कहा-माँ तुम्हारे आगे मैं बिल्कुल लज्जा नहीं करूंगी। मैं तुमसे सच कहती हूं कि मैं यह सब कुछ नहीं मानती। मैंने खूब अच्छी तरह सोचकर देख लिया है कि यह कोई जरूरी बात नहीं है कि मनुष्य का कोई भी धर्म, विश्वास समाजसे क्या न हो उसे छोड़कर ही मनुष्य परस्पर मिल सकते हैं--यह बात की हो हो नहीं सकती। तब तो बड़ी बड़ी दीवारें उठाकर एक एक सम्प्रदाय को एक एक घेरेके भीतर रख देना ही उचित है। अानदमयीका मुख अानन्दकी अाभासे उज्जवल हो उठा। उन्होंने कहा--श्राहा, तुम्हारी बातें सुनकर मुझे बड़ा आनन्द हुा । मैं तो यही बात कहती हूँ । एक मनुष्य के साथ मनुष्यका रूप गुण या स्वभाव कुछ. भी नहीं मिलता, तब भी तो उस भेद के कारणं दो मनुष्य के मिलने में कोई रुकावट नहीं होती-फिर मत और विश्वासके भेद से ही क्या