पृष्ठ:गोरा.pdf/४०२

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परेश वाबू उपासनाके उपरान्त अपनी बैठक के सामनेके बरामदेमें चुपचाप बैठे थे। सूर्य अभी-अभी अस्त हुए थे। इसी समय ललिताको साथ लिए विनयने वहाँ प्रवेश कर उनको पणाम किया। परेश बाबू दोनों को इस तरह वहाँ उपस्थित होते देखकर कुछ विस्मित हुए । पास बैठने देने के लिए कुर्सी न होने के कारण उन्होंने कहा-चलो, कमरे के भीतर चलो। विनय ने कहा-ना, आप उ नहीं । यह कह कर वह वहीं जमीन पर बैठ गया। ललिता भी जरा हट कर परेश बाबू के पैरों के पास बैठ गई। विनयने कहा-हम दोनों जने एक साथ आपका आशीर्वाद लेने आये हैं। यही हमारे जीवन की सस्य दीक्षा होगी। परेश बाबू विस्मित होकर दोनांके मुँह की ओर ताकने लगे। विनयने कहा-बधे हुए नियम के अनुसार बँधे हुये शब्दोंके द्वारा समाजमें प्रतिज्ञा ग्रहण मैं नहीं करूँगा | जिस दीक्षा से हम दोनों जनोंका बीवन नत होकर सत्यके बन्धनमें बैंधेगा, वह दीक्षा आपका आशीर्वाद ही है। हम दोनों ही जनोंका हृदय भकिसे आपके ही चरणोंके निकट प्रयत हुआ है । हम दोनोंका जो मंगल है, वह ईश्वर आपके हाथ से दे देंगे। परेश बाबू कुछ देर तक कोई बात न कह कह स्थिर भावसे बैठे रहे। परेश बाबू ने कहा--विनय ! तो तुम ब्राह्म न होगे? विनय-ना। परेश-तुम हिन्दू-समाज में ही रहना चाहते हो ! विनय-हाँ। ४०२ --