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गोरा

गोरा [roz हाय ! कहाँ वह भारतवर्ष ! कहां कितनी दूर पर यह सुचरिता यी ! कहाँ से भारतवर्ष का साधक आ पड़ा। यह भाव में भूला हुश्रा साधक सबको हटाकर क्यों इसी के पास आ खड़ा हुआ ! सबको छोड़कर क्यों उसने इसीको पुकारा। कोई सन्देह न किया, कोई बाधा न मानी । कहा, तुम्हारे न रहने से काम न चलेगा। मैं तुमको लेने ही के लिए आया हूँ। तुम्हारे दूर रहनेसे यज्ञ पूरा न होगा। सुचरिता को आखों से आँसुओं की धारा बह चली । क्यों वह चली, यह वह समझ न सकी। गोरा ने मुचरिता के मुंह की ओर देखा। उस दृष्टिके सामने सुचरिता ने अपने अांसू भरी यांचे नीचे न की। प्रोस-कासे भरे हुए कमल-पुष्पकी भांति वे अांखें आत्म -विस्मृत भाव में गोरा के मुंह की और विकसित हो रहीं। हरिमोहिनीका कण्ठत्वर मुन गोग चौंक पड़ा और मुह फिराकर बरकी ओर देखने लगा। हरिमोहिनी ने कहा--बेटा, कुछ मुंह मीठा करके जाना। गोरा झट बोल उठा अाज नहीं, मुझे माफ कीजिए, मैं अभी जाता हूँ। यह कहकर गोरा और किसी बात की अपेक्षा न करके बड़ी तेजी से - चला गया। कुछ ही देर बाद परेशबाबू आ गये ! सुचरिता के कमरे में पहुंच कर उन्होंने कहा- विनय अब दीक्षा न लेगा। सुचरिता कुछ न बोली। परेशने कहा—विनयके दीक्षा लेनेके प्रस्ताव पर मुझे पूरा सन्देह था, इसीसे मैं उसके अस्वीकार करने से कुछ विशेष क्षुब्ध नहीं हुआ। किन्तु ललिता की बात के ढङ्गसे मालूम हुअा है कि दीक्षा न लेने पर भी विनय के साथ व्याह करने में उसे कोई बाधा नहीं दिखाई देती।