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गोरा

, ४१.] गोरा सुचरिता हठात् खूब जोरसे बोल उठी- नहीं, कभी नहीं होगा। परेश बाबूने अचम्मे के साथ पूछा-क्या नहीं होगा ? सुचरिता--विनयके ब्राह्म न होने से व्याह कैसे होगा ? पोश- हिन्दु-मत से तुचरिता ने सिर हिलाकर कहा-नहीं, नहीं, आजकल ये क्या बातें हो रही है। ऐसी बात मन में आने देना भी उचित नहीं । क्या अन्तमें शालग्राम पूजकर ललिताका ब्याह होगा? यह मैं किसी तरह होने न देंगी? गोरा ने सुचरिता के मनको अपनी ओर खींच लिया है, कोई यह न कहे, इसलिए आज वह हिन्दू मत से विवाह की बात पर एक अस्वाभाविक शाक्षेप प्रकट कर रही है। इस आक्षेप के भीतर की असल बात यही है जिससे परेशबाबू समझे कि सुचरिता उनको छोड़ कहीं न जायगी। वह अब भी उनकी समाज का, उनकी मतका, उनके उपदेश का उलल्लंघन न करेगी। वह उनके शिक्षा-रूपी बन्धन को किसी तरह तोड़ न सकेगी। परेश ने कहा--विवाह के समय शालग्रामको साक्षी रूप में न रखने को विनय राजी हो गया है। इसमें तुम क्या कहती हो? सुचरिता कुछ सोचकर बोली-तो हमारे समाज से ललिताको निकल जाना पड़ेगा। परेश-इसके विषयमें मुझे बहुत चिन्ता करनी पड़ी है। किसी मनुष्यके साथ जब समाजका विरोध हो तब दो बातें सोचनी पड़ती है। दोनों दलोंमें न्याय किस ओर है, दोनों दलोंमें प्रवल कौन है। समाज की प्रबलतामें तो सन्देह ही नहीं हो सकता, अतएव विद्रोही को दुःख झेलना पड़ेगा। ललिता बार-बार मुझसे कहती है कि मैं केवल दुःस्व . सहन करनेको ही तैयार नहीं हूँ वरन् इसमें अानन्द का अनुभव भी कर रही हूँ।' यदि यह बात सत्य हो और इसमें कोई अन्याय न पाया जाय तो मैं उसे क्यों रोकूँ? सुचरिता- पिताजी, यह कैसे होगा ! परेश-मैं जानता हूँ कि इसमें कोई संकट अवश्य उपस्थित होग्य