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गोरा

४१४] गोरा विनयने गोराका मुँह उदास देखा, और उनके कण्ठस्वर स्नेह-जनित वेदनाका अनुभव किया तब मनको जिस कठोरताका कवच पहना कर लाया था, वह कवच एक ही पलमें टुकड़े-टुकड़े उड़ गया। वह बोल उठा -माई गोरा, तुमने समझने में भूल की है । जीवन में अनेक परिवर्तन होते हैं; कितनी ही वस्तुओंका त्याग करना पड़ता है। किन्तु इससे मैं मित्रत्व को क्यों छोडूंगा ? गोराने जरा ठहरकर कहा --विनय, क्या तुमने ब्राह्म-धर्मकी दीक्षा ले ली है ? विनय-नहीं; न ली है और न लूँगा। गोरा-ललिता से ब्याह करोगे ! बिनय हाँ। गोरा-~-हिन्दू पद्धतिसे ? विनय - हाँ। गोरा--परेश बाबूकी राय है ! विनय यह उनकी चिट्ठी देख लो। गोरा ने परेशकी चिट्ठी दो मतवा पढ़ी । उसके अन्त में यही लिखा था- -"मैं अपनी पसन्द या ना पसन्दकी बात न कहूँगा, तुम्हारी सुविधा या असुविधाकी भी कोई बात कहना नहीं चाहता। मेरा किस मत पर विश्वास है, मेरा समाज क्या है, यह तुम जानते हो। ललिताने बचपन से क्या शिक्षा पाई है और किस संस्कार के बीच पलकर वह मनुष्य हुई है, वह भी तुमसे छिपा नहीं । इन सब बातोंको अच्छी तरह देख सुनकर तुमने अपना मार्ग ठीक कर लिया है। अब मुझे कुछ कहना नहीं । जहाँ तक मेरी बुद्धि सोच सकी है, मैंने सोच लिया है। सोचकर यहीं देखा कि तुम दोनोंके विवाहमें बाधा देने का कोई धर्म सङ्गत कारण नहीं ? क्योंकि तुम पर मेरी पूर्ण श्रद्धा है। इस जगह समाज में यदि कोई बाधां हो तो तुम उसे स्वीकार करने को बाध्य नहीं। मुझको केवल इतना ही कहना है कि यदि तुम समाज को