पृष्ठ:गोरा.pdf/४३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ ४३५
गोरा

[ var गोरा-मैं उसका मित्र अवश्य है, किन्तु यही तो संसारमें मेरा एक मात्र बन्धन और सबसे बढ़ कर बन्धन नहीं है। परेश-बोरा ! तुम्हारी समममें क्या बिनयके अस्वस्थ में कुछ अन्याय या अधर्म प्रकट हो रहा है? गोरा-धर्मके दो पहलू हैं। एक नित्य और एक लौकिक । धर्म जिस जगह समाजके नियममें प्रकट होता है, वहाँ भी उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती वैसा करनेसे संसार का विनाश हो जायगा । परेश-नियम तो असंख्य हैं, तो क्या यही मान लेना होगा कि सभी नियमोंमें धर्म प्रकट हो रहा है? यह कह कर परेशवाबू उठ खड़े हुए-गोरा भी कुर्सी छोड़कर उठा । परेशने कहा-मैंने सोचा था, ब्राझ-समाजके अनुरोधसे मुझे शायद इस विवाहसे जरा अलग रहना होगा--तुम विनयको मित्रताके नाते सब काम सुसम्पन्न कर दोगे। इसी जगह पर आत्मीयता की अपेक्षा मित्र के लिए जरा सुबीता है, उसे समाजका आघात नहीं सहना पड़ता; किन्तु तुम भी जब विनयको छोड़ देनाही कर्तव्य समझते हो, तब मेरे ही ऊपर सब भार आ पड़ा है-यह काम मुझीको अकेले निबाहना होगा। उस समय गोरा यह नहीं जानता था कि 'अकेले' का अर्थ यहाँ केवल परेश वाचूके डीलसे ही है। वरदासुन्दरी उसके विरुद्ध खड़ी थीं, घरकी और स्त्रियां भी प्रसन्न न थीं, हरिमोहिनीको आपत्ति की आशंका करके परेश बाबूने सुचरिताको इस व्याहकी सलाहमें भी नहीं बुलाया था। उधर ब्राझ-समाजके सभी लोग उनके ऊपर सज-हस्त हो उठे थे और विनयके चाचाकी अोरसे उन्होंने जो दो पत्र पाये थे, उसमें उन्हें कुटिल कुचक्री, लड़केको फुसला लेने वाला आदि कहकर खूर गालियाँ दरी गई यो। शके नाते ही अविनाश और गोराके दलके और भी दो एक श्रादमियोंने गोराके बैशाखाने में प्रवेश कर परेश बाबूको लक्ष्य करके ₹सी-दिलगीका उपक्रम किया। मोरा नद उठा-चो भूचिके पात्र है, 1