पृष्ठ:गोरा.pdf/४३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४३८ ]
गोरा

गोरा 2 सुचरिता ने देखा, गोराका आना जाना एकदम बन्द हो गया। वह समझ गई कि हरिमोहिनीने उससे जरूर कुछ कहा है। उसने मनमें कहा, नहीं आये तो क्या ! वही मेरे गुरु है, वही मेरे गुरु हैं। इसी बीच एकदिन दोपहरके बाद ललिताने आकर बड़े प्यारसे सुच- रिताको गले लगाया और गद्गद् कंठसे कहा-~-सुचरिता बहन ! सुचरिता-कहो बहन, क्या हाल है ? ललिता-सब ठीक हो गया। सुचरिता----कौन दिन नियत हुआ है ? ललिता-सोमवार। सुचरिता-मण्डप कहाँ होगा ? ललिताने सिर हिलाकर कहा-मैं नहीं जानती, पिताजी जानते हैं। सुचरिताने ललिताको गले लगाकर कहा-खुश हो न ! ललिता-खुश क्यों न हूंगी ! सुचरिता - जो तुमने चाहा था सो सब मिल गया। अब किसीके साथ झगड़ा करनेकी बात न रही। इसीसे डरती हूँ, पीछे तुम्हारा उत्साह कम न हो जाय । उत्साह न रहनेसे किसके साथ झगड़ोगी ? ललिताने हँसकर कहा-क्यों, क्या झगड़ा करनेवालोंका अभाव है। अब बाहर खोजना न पड़ेगा। सुचरिताने ललिताके गालमें उँगली गड़ाकर कहा–हाँ, समझ गई । अभीसे कलहका सब सामान दुरुस्त हो रहा है । मैं विनयसे कह दूंगी। अभी समय है बेचारा सावधान हो जाय । ललिता ने कहा- तुम्हारे बेचारे को अब सावधान होने का समय नहीं । अब उसके छूटनेका कोई उपाय नहीं । बाली में जो कष्ट लिखा था वह फलित हुआ ! अब सिर पीटना और रोना मात्र है ? सुचरिताने-गम्भीर भावसे कहा-मैं कितनी खुश हुई हूँ सो तुमसे क्या कहूँ। विनयके सदृश स्वामी पाकर तुम उसके योग्य हो सको, यही मेरी ईश्वर से प्रार्थना है।