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गोरा

४० गोरा मेरे आगे उनका नाम भी न लेती थी। इससे मेरे मन में और भी क्रोध हैता था । तुम जो मुझसे बढ़कर उनको प्यार करती थी यह मुझे असह्य मालूम होता था । नहीं बहन, आज मुझे वह बात कहने दो, उनके निमित्त मैंने कितना कष्ट पावा है उसे मैं क्या कहूँ । आज भी तुम मुझसे वह वात न कहेगी, यह मैं जानती हूँ किन्तु आज न कहनेसे अब मुझे क्रोध न होगा । मैं बहुत खुश हूँगी, अगर तुम्हारा- सुचरिता नै झट ललिताका मुँह बन्द करके कहा--तुम्हाने पैरों पड़ती हूँ, यह बात मुंह पर न लाश्रो। वह बात सुननेसे मैं धरती में समा जाना चाहती हूँ। ललिता—क्यों बहन, वे क्या । सुचरिता व्याकुल होकर बोल उठी-नहीं, नहीं ललिता, पागलकी तरह बात न कर; जो यात मन में न समा सके वह मुंह में न ला ! ललिताने सुचरिताके इस सङ्कोचसे खिसियाकर कहा-~-बहन, यह तुम्हारी सरासर भूल है। मैंने खूब सोचकर देखा है; मैं तुमसे सच कहती हूँ-- ललिता का हाथ छुड़ाकर सुचरिता कोठेसे बाहर हो गई । ललिता उसके पीछे दौड़कर उसे पकड़ लाई और बोली--अच्छा, अच्छा अब मैं न कहूँगी। सुचरिता—फिर कमी ! ललिता- मैं इतनी बड़ी प्रतिज्ञा न कर सकेंगी। यदि मेरा दिन आवेगा तो कहूँगी नहीं तो नहीं। यह बात आज यहीं तक रही। इधर कई दिनोंसे हरिमोहिनी छिपे-छिपे सुचरिता पर नजर रखती थी, और बराबर उसके पास ही पास फिरा करती थी। सुचरिता इस बातको समझ गई थी और हरिमोहिनी की यह सन्देह-पूर्ण सतर्कता उसके हृदय पर बोझ सी मालूम हो रही थी। लिलताके चले जाने पर सुचरिता अत्यन्त क्लालान्त चित्त होकर टेवलके ऊपर दोनों हाथोंके बीच सिर रखकर रोने लगी। तब हरिमोहिनी ऊपर