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गोरा

इधर हिन्दू-हिन्दू कहकर रोती है---उधर उसने बड़े सुयोगकी बात पर ध्यान तक नहीं देती। न प्रायश्चित करना होगा, न कोई कैफियत देनी होगी, सिर्फ इधर उधर-थोड़ा-बहुत रुपया खर्च करके अनायास ही समाजमें मिल जायगी। इसमें भी जिसको उत्साह नहीं, वह अपने को हिन्दू कहती है, ब्राह्म होकर हिन्दू बननेका बड़ा शौक है । गोराः कितना बड़ा धूर्त है और वह सुचरिता पर कितना बड़ा प्रभाव डाले हुए है, यह सब हरिमोहिनी सोचने लगी। सुचरिता के पास जो कुछ धन सम्पत्ति है, उसीको हरिमोहिनीने अनर्थका मूल समझर । अभी जिस जालमें सुचरिता फँसी है उसका परिणाम पीछे क्या होगा, यह भी हरिमोहिनी की दृष्टि पर चढ़ गया। हरिमोहिनी इस धूर्तके हाथसे सम्पत्ति सहित किसी तरह छुड़ाकर अपने देवरके हाथ सौंप देने ही में कुशल समझने लगी । किन्तु सुचरिता का मन कुछ मुलायम हुए बिना काम न चलेगा, यह सोच उसके हृदयको रिघ- लाने की आशासे वह दिन-रात सुचरिता को अपनी ससुराल और अपने देवर का सुयश सुनने लगी। इधर कई दिनोंसे परेश बाबू अनेक प्रकार की चिन्ताओं और कामोमें फँस जानेके कारण सुचरिता के यहाँ न जा जके । सुचरिता रोज ही उनके पानेकी राह देखती थी और उसके मन में कुछ कष्ट और संकोच भी होता था। परंश बाबूके साथ जो एक धार्मिक शुम सम्बन्ध है वह कभी टूट नहीं सकता, यह वह निश्चय जानती थी किन्तु वाहर के दो-एक बड़े-बड़े सूत्रोमें खिंच जानेको वेदना भी उसे चैन नहीं लेने देती थी। इधर हरिमोहिनी उसे दिन रात तंग किये रहती है, इसलिए सुचरिता अाज परेश वाबू के घर गई और बोली--पिताजी, आप कैसे हैं ? परेश बाबूने सहसा अपनी चिन्ता में बाधा पाकर कुछ देर तक खदेहो सुचरिताके मुंहकी और देखा, और कहा-- राधा अच्छी तरह हूं। दोनों घूमने लगे । परेश बाबूने कहा-सोमवारको ललिताका न्याह होगा।