पृष्ठ:गोरा.pdf/४४७

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[ ६६ ] सुचरिता ने परेश बापू के मुंहसे जो कुछ मनकी बातें सुनीं वे गोरा से कहने के लिए उसका मन ब्याकुल हो उठा। जिस भारतवर्ष की ओर गोराने अपनी दृष्टि को प्रसारित कर और चित्त को प्रपल प्रेमसे श्राकृष्ट किया है वह भारतवर्ष क्षयके मुँह में प्रवेश करने चला है। क्या गोरा इस घाव को न सोचता होगा ? इतने दिन भारतवर्ष से अपनी प्राभ्यन्तरिक व्यवस्थाके बलसे अपनेको बचा रक्खा है। इसके लिये भारतवासियों को सावधान होकर चेष्टा करनेकी ताश आवश्यकता न थी। त्या अब उस तरह निश्चिन्त हो बैठनेसे भारतवर्ष की रक्षा हो सकती है ? क्या अब पहले की तरह केवल पुरानी व्यवस्थाके भरोसे घर के भीतर बैठ रहनेसे भारतका रोग दूर हो सकता है ? सुचरिता सोचने लगी, इसके भीतर मेरा मी तो एक काम है। वह काम क्या है ? गोरा को इस समय मेरे सामने आकर आदेश करना और पथ दिखा देना उचित था । वे मुझे इस तरह त्याग दें यह कमी न होगा। मेरे पास उनको श्राना ही होगा। मेरी खोज खबर उनको लेनी ही होगी। उनको सारी लोक लज्जा से हाथ धोना ही पड़ेगा। वे चाहे जितने बड़े शक्तिमान् पुरुप क्यों न हो, उनको मेरा प्रयोजन है, यह बात उन्होंने अपने मुंहसे मेरे आगे कही थी। श्रान एक साधारण बातमें पड़कर वे उसको कैसे भूल गये। सतीश दौड़कर सुचरिता के पास श्राया और उसके बदनसे सटकर बोला-बहन ! सोमवारको ललिता बहन का न्याह है। मैं अब कई दिन उनके घर में ही रहूंगा। उन्होंने मुझको बुलाया है। सुचरिता-यह बात मौसी से कही है ?