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गोरा

गोरा [४३ था कि मैं आँसू न गिराऊँगी, किन्तु पिताके घरसे विदा होते समय अपने बाल्य सहचरका यह स्नेहोपहार हाथ में लेते ही उसकी आँखोसे कर झरकर आँसू गिरने लगे। परेश बाबू आँखे मूंदे स्थिर बैठे रहे । कुछ देरमें गाड़ी नपे मकान के फाटक पर जा पहुंची। "श्राश्रो बेटी, पात्रो", कहकर आनन्दमयी ललिवाके दोनों हाथ पकड़ बड़े प्यारसे घरके भीतर ले आई । मानो वह उसके आनेकी प्रतीक्षा में ही बैठी थी। परेश बाबू ने सुचरितासे कहा-"ललिता मेरे घरमे एक दम विदा होकर आई है।" यह कहते समय उनका कण्ठस्वर कम्पित हो गया। मुचरिता ने कहा-यहाँ उसे किसी तरह की तकलीफ न होगी। परेश बाबू जब जानेको उद्यत हुए तब आनन्दमयी ने धूंघट डाल कर उनके सामने आ उन्हें नमस्कार किया। परेश बाबूने भी सिर नवाया। अानन्दमयी ने कहा--ललिताके लिए आप कुछ मी चिन्ता न करें। आप जिसके हाथमें ललिता को सौंप रहे हैं उसके द्वारा वह कमी कोई दुःख न पावेगी । भगवानने इतने दिन बाद मेरे एक अभाव को दूर कर दिया । मेरे लड़की न थी वह मुझे मिली ? विनय की बहू के कारण मेरे कन्या न रहने का दुःख मिटेगा, मैं बहुत दिनोंसे इस आशा में बैठी थी। यदि ईश्वर ने देर करके मेरा मनोरथ पूरा किया तो उसने ऐसी लड़की दी और ऐसी अद्भुत रीतिसे दी जो सब प्रकार मेरे मनके अनुकूल हुई । मेरा ऐसा भाग्य होगा, यह मैंने कभी सोचा भी न था। ललिताके विवाहका आन्दोलन प्रारम्भ होनेके बाद यही पहले पहल परेश बाबूके चित्त ने संसार में एक जगह एक किनारा देखा और सच्ची सान्त्वना पाई।