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गोरा

-- गोरा [४५ मनुष्य के रक्तको चूसकर उसे निष्ठुर भावसे निःसत्व और निःसल बना रहा है। कितनी ही बार उसने देखा है, समाममें काम-काजमें कोई किसी पर कुछ भी दवा नहीं करता । एक आदमोका बाप बहुत दिनरे रोगों भोग रहा था, उस वापकी दवा दरमत और पथ्यमें लड़के बेचारेका गर्वल स्वाहा हो गया, पर इस मामले में किसीके भी निकटसे कुछ भी सहायता उसे नहीं मिली। किन्तु दिहातोंमें जहाँ वाहरकी शक्तियोंका संघात उस तरह काम नहीं करता, वहाँकी निश्रेष्ठताके बीच गोराने स्वदेशकी गम्भीरता दुर्व लता की जो मूर्ति है, यहाँ देख पाई। जो धर्म सेवा रूपसे, प्रेम रूपसे करुणा रूपसे आत्म-त्याग और मनुष्य के प्रति श्रद्धाके रूपसे सत्रको शक्ति देता है, प्राय देता है, कल्याण देता है वह कहीं पर भी नहीं देख पड़ता। जो श्राचार केवल बीचमें रेखा खींचता है, लाम करताहै, पीड़ा पहुँचाता है, जो बुद्धिको भी कहीं अमल नहीं देना चाहता, जो प्रातिको भी दूर खेद रखता है, वही सबको उठते बैठते सभी मामलों में केवल बाधा देता रहता है। दिहातके भीतर इस मूढ़ बाध्यताका अनिष्ट कर अमल इतमे भिन्न भिन्न प्रकारोंसे गोंराकी आँखोंके धागे आने लगा। गोराने पहले ही देखा, माँवके नीच जातियोंके वीच स्त्रियोंकी संस्था कम होनेके कारण अथवा अन्य चाहे जिस कारणसे हो बहुत रुपये खर्च करने पर मदीको ब्वाहके लिए स्त्री मिलती है। अनेक मदों को जीवन भर और अमेकको अधिक अवस्था तक अविवाहित रहना पड़ता है ! उधर विधवा विवाह के सम्बन्धमें कठिन निषेत्र है। इससे घर पर समाच का स्वास्थ्य दूषित हो रहा है और इसके अनिष्ट तथा असुविधाका अनुभव समाजका हर एक मनुष्य ही करता है। इस अकल्याएको घिर- गोल तक लाद कर चलने के लिये सभी बाध्य हैं; किंतु इसका प्रतिकार करने का उपाय कहीं किसीके भी हाथमें नहीं है। शिक्षित समाजमें जो कर आचारको कहीं भी शिथिल नहीं होने देना चाहता, उसी गोराने यहां श्राचारको श्राघात किया। उसने इस श्राचारके पुरोहितोंका वशमें