पृष्ठ:गोरा.pdf/४५७

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-- [ ६८ ] टसरका कोट पहिने, कन्धे पर डुपट्टा डाले और हाथमें एक बैग लट- काये स्वयं कैलाशचन्द्रने अाकर हरिमोहिनीको प्रणाम किया। उसकी उम्र पैंतीस सालके लगभग होगी। कद मझोला है, चेहरा देखनेसे बदन मजबूत मालूम होता है । हजामत बनवाये कुछ दिन हो जानेसे दाढ़ीमें कुशाग्रकी भाँति बाल निकल आये हैं । हरिमोहिनी मुद्दतके बाद ससुरालके वाल्मीयको देख हर्षित होकर बोली "अच्छा, कैलाश बाबू हैं । आइये, आइये, बैठिए" यह कहकर उसने झट एक कम्बल बिछा दिया हाथ-पैर धोनेको लोटेमें पानी लाकर रख दिया। कैलाशने कहा - अभी इसकी जरूरत नहीं । आपकी तवियत तो अच्छी है ? तबियतका अच्छा रहना एक अपवाद जानकर हरिमोहिनी कहा- "तबियत अच्छी क्या रहेगी, देह तो दिन-रात बिना ही आगके जला करती है" यह कहकर वह नाना प्रकारकी व्याधियों का नाम गिनाने लगी फिर बोली-ऐसे निकम्मे शरीरका न रहना ही अच्छा है। इतना दुःख पाने पर भी मरण नहीं होता । जीवनके प्रति ऐसी उपेक्षा में कैलाशने आपत्तिकी और ये बातें वना कर उसके हृदयको गद्गद कर दिया कि यद्यपि बड़े भाई संसारमें नहीं हैं तथापि तुम्हारे रहने से हमें उनके न रहनेका दुःख नहीं है। हम सब तुम्हारा पूरा भरोसा रखते हैं और प्रमाणमें यह भी कहायही क्यों नहीं देखती कि श्राप यहाँ है, इसीसे कलकत्ते आना हुअा; नहीं तो यहाँ खड़े होने को भी कहीं जगह न मिलती ।