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गोरा

गोरा [ ४६३ इसमें गोराको जरा भी सन्देह न रहा । आज ही इसी सम्ध्या समय वह इस अपेक्षा को पूर्ण करेगा। लोगोंसे भरे हुर कलकत्तेके रास्तेमें गोरा इस वेगस चला, जैसे किसी को उसने सड़क पर देखा ही न हो । उसका मन उनके शरीरको छोड़ एकाग्र हो कहीं चला गया । सुम्बरिताके परके सामने आकर गोरा एकाएक सचेत होकर सड़ा हो गया । वह इतने दिन तक यहाँ पाया है, पर कभी दरवाजा बन्द नह मिला । अाज देखा, दरवाजा खुला नहीं है । ढकेलकर देखा मातर बन्द था। खड़े होकर कुछ देर सोचा, फिर किनाड़ पर धक्का दे, दो बार बार पुकारा। हक नौकर किवाड़ खोलकर बाहर आया। उसने सन्ध्यासे सूज अन्धकारमें गोराको देखते ही पहचान लिया और उनसे किसी प्रश्न अपेक्षा न करके कहा-मालकिन नहीं हैं। "कहाँ गई है। वे ललिता बहन के न्याहकी तैयारीमें कई दिनोंसे नहीं रहती है। एक बार गोराने मनमें कहा, चलो, बिनयके न्याह मण्डपमें ई. जाम। इसी समय एक अपरचित न्यचिने घरके भीतरमे निकलकर कहा-क्या महाशय, क्या चाहिए ? मोराने सिरसे पैर तक उसे देखकर कहा-नहीं, कुछ नह, काहेर, - आइए,जरा बैठिए, तन्वा पी लीजित हो जाइयेगा। साथी के विना कैलाश की जान निकली जा रही थी : देहाती लोग जब तक किसी के साथ भर पेट गप-सप न करें तब तक उनका साना नहीं पचता । इसीसे वह गोराको देख खुश हुआ। दिन वह हाथमें हुक्का ले गली के मोड़ पर खड़ा-खड़ा रास्ते पर लोगोको अजाते देख किसी तरह जी बहला लेता था; किन्तु साँसको घरके भीतर अश्या बैठना उसके लिए असह्य हो उठता था ! हरिमोहिनी के साथ जो कुछ अलोचना करने को थी, यह खतम हो चुकी है। हरिमोहिनी वार्तालाप कर शक्ति कैलासने कहा-