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गोरा

४६४ ] गोरा बहुत कम थी । इसी कारण कैलाश नीचे, फाटकके पास वाले छोटे कमरे में, चौकी पर हुक्का लेकर बैठता था और बीच बीचमें दरवानको पुकारकर उसके साथ गप-सप करके समय बिताता था । गोराने कहा-नहीं, मैं अभी नहीं बैठ सकता । कैलाशके दोबारा अनुरोध करनेका मौका न देकर वह पलक मारने ही उस गली से चला गया। गोराके मनमें यह एक दृढ़ संस्कार था कि मेरे जीवनको अधिकांश घटनाएँ आकस्मिक नहीं हैं अथवा मेरी व्यक्तिगत इच्छाके द्वारा वे सिद्ध नहीं होती। मैंने अपने देशके विधाता का कोई अभिप्राय सिद्ध करनेके लिए जन्म ग्रहण किया है। इसलिए वह अपने जीवनकी छोटी-छोटी घटनाओंका भी कोई विशेष अर्थ जाननेकी चेष्टा करता था । आज जब उसने अपने मनकी इतनी बड़ी प्रबल इच्छा की प्रेरणासे एकाएक जाकर मुचरिताके घरका दरवाजा बन्द देखा और दरवाजा खुलने पर जब सुना कि वह नहीं है, तब उसने इसे एक अभिप्रावपूर्ण घटना समझा। जो ईश्वर सुचरिताको चलायमान कर यहाँ से अन्यत्र ले गया है वही आज गोरा को निषेधकी सूचना दे रहा है। इस जीवनमें उसके लिए सुचरिता का द्वार बन्द है । सुचरिता उसके लिए नहीं है । गोराके सदृश मनुष्यको अपनी इच्छाके अनुसार किसी वख पर मुग्ध होनेसे काम न चलेगा। वह अपने सुख से सुखी और दुःखसे दुःखी होनेवाला नहीं है । वह भारतवर्ष का ब्राह्मण है; भारतवर्ष की ओरसे उसे देवता की अराधना करनी होगी। भारतवर्ष का होकर तपस्या करना ही उसका काम है। आशक्ति, विषयोपभोग उसके लिए नहीं सिरजा गया है । गोराने मनमें कहा- विधाताने आसक्तिका रूप स्पष्ट दिखा. दिया। जो दिखाया, वह स्वच्छ नहीं, शान्त नहीं वह मय जैसा लाल और वैसा ही तेज है। वह बुद्धको स्थिर रहने नहीं देता। वह और को और कर दिखाता है । मैं संन्यासी हूं, मेरी साधना में उसका स्थान नहीं। । -::-