पृष्ठ:गोरा.pdf/४६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४६८ ]
गोरा

४६०] गोरा वह बात सुनतेही हरिमोहिनीका सर्वाङ्ग जल उठा। किन्तु अभी कोई बात कहना उसने ठीक न समझा। आनन्दमयीके पास आकर सुचरिता मुस्कराती बोली-माँ मैं जरा घर हो आऊँ। आनन्दमयीने और कुछ न पूछ कर कहा-अच्छा हो पात्रो । सुचरिताने ललिताके कानमें कहा-मैं आज ही दोपहरको लौट आऊंगी। --सतीश। पालकीके सामने खड़ी होकर सुचरिताने कहा- हरिमोहिनीने कहा--सतीशको यहीं रहने दो न । सतीश जो घर जायगा तो विन्न स्वरूप हो सकता है यह सोचकर उसने सतीशको दूर रखना ही पसन्द किया। दोनों जब पालकीमें बैठी और कहार पालकी ले चले तब हरिमोहिनी ने भूमिका बाँधनेकी चेष्टा कर कहा-"ललिता का तो व्याह हो गया। यह अच्छा ही हुआ ! एक लड़कीसे तो परेश बाबू निश्चिन्त हुए।" इसके बाद उसने कहा-घरमें कुंवारी लड़की बहुत बड़ी विपदकी वस्तु है पिताके लिये यह बड़ी ही दुश्चिन्ताका कारण है मैं तुमसे क्या कहूँ, मेरे मन में भी दिन रात यही चिन्ता लगी रहती है ! मैं एक ऐसे घराने में तेरा सम्बन्ध पक्का कर दूंगी जिसका सुयश सर्वत्र छाया हुआ है । एक ऐसा अवसर प्राप्त होगया है जिसके कारण तू बड़े-बड़े कुलीनोंके घर एक पंक्ति में बैठकर भोजन करेगी और कोई च तक न कर सकेगा। भूमिका समात न होने पाई थी कि पालकी दर्वाजे के पास श्रा पहुंची। दोनों पालकीसे उतरकर घरके भीतर आयीं । ऊपर जाते समय सुचरिता की दृष्टि एकाएक देवांजेके समीपवाले कमरेमें एक अपरिचित व्यक्ति पर पड़ी। देखा, वह एक नौकरसे तेल की मालिश जोरसे करा