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गोरा [ ४६६ रहा है । उसने तुचरिता को देखकर कुछ संकोच न किया बल्कि बड़ कुतूहल के साथ उसकी ओर निहारने लगा। ऊपर जाकर हरिमोहिनीने अपने देवरके आने का संवाद सुचरिता को सूचित किया। हरिमोहिनीने उसको समझानेकी चेष्टाकी कि घर पर एक मेहमान आया है, उसे ऐसी अवस्थामें छोड़ आज ही दोपहर को चला जाना तुम्हारे लिये उचित न होगा। सुचरिताने सिर हिलाकर कहा-नहीं मौसी, मुझे जानाही होगा! हरिमोहिनी-अच्छा आजके दिन रह जात्रो, कल चली जाना। सुचरिता -मैं अभी स्नान करके परेश बाबूके घर भोजन करने जाऊँगी और वहींसे ललिताके पास जाऊँगी । तब हरिमोहिनीने स्पष्ट कहा-तुम्हींको देखने आये हैं। इसमें क्या हानि है सिर्फ पाँच ही मिनटमें देखा-सुनी हो जायेगी। सुचरिता--नहीं। यह 'नहीं' शब्द इतना प्रबल और साफ था कि हरिमोहिनीको फिर उसे दुहरानेका साहस न हुआ । उसने कहा- अच्छा न सही। देखनेकी उतनी जरूरत भी नहीं है। यह तो अपने घरकी बात है। परन्तु कैलाश आज-कल का लिखा-पढ़ा लड़का है, तुन्हीं लोगोंकी तरह वह भी कुछ नहीं मानता। कहता है, कन्याको अपनी आँखसे देखेंगा ! तुम लोग सबके सामने आती जाती हो, इसीसे कहा। देखना तो कोई बड़ी बात नहीं है। किसी दिन नुमते उसकी मेंट कराऊँगी। अभी तुम लजाती हो, तो भले ही उससे भेंट न करो। यह कहकर वह कैलाशका वर्णन करने लगी। उसके शील स्वभावके बारे में उसने बहुत कहना फजुल समझा । इतना ही कहा, स्त्रीके मरने पर वह किसी तरह दूसरा व्याह करना नहीं चाहता था । घरके लोगोंने जब उसे बहुत तङ्ग किया तब वह लाचार होकर केवल गुरुजनोंकी आज्ञा पालन करने को प्रवृत्त हुआ है।