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गोरा

गोरा [ ४७३ में बैठकर अपने मन और वाणीको भावके स्त्रोतमें बहा देता था तब उसके हृदयमें आनन्द और भक्तिरस का सचार हो अाता था। यह समझकर भी उसने मूर्ति-पूजा करमा न छोड़ा । वह नित्य नियमपूर्वक पूजा पर बैठने लगा। इसे उसने अपना नित्य का नियम मान लिया और यह कह कर मन को समझाया कि जहाँ भाव की प्रबलता नहीं वहाँ नियम ही प्रधान है, वहाँ नियम से ही काम लेना चाहिए । गोरा जब गाँव में जाता था तब वहाँके देवालयमें जाकर मन ही मन ध्यान करके कहता था यहीं मेरे साधन का विशेष स्थान है, एक अोर देवता और एक ओर भक्ति, इन दोनों के बीचमें ब्राह्मण सेतु स्वरूप होकर दोनोंको परस्पर मिला रहे हैं। क्रमशः गोरा के मन में यह खायल भी पैदा हुआ कि ब्राह्मण के लिए भक्ति की आवश्यकता नहीं । भक्ति साधा- रण मनुष्योंकी ही विशेष सम्पत्ति है। इस भक्त और भक्ति के बीच का जो मार्ग है वही ज्ञान का मार्ग है। यह जैसे दोनों की योगरक्षा कर रहा है, वैसे दोनोंकी सीमा का भी न पालन कर रहा है। भक्त और देवताके बीच यदि निर्मल ज्ञान परदेकी तरह न रहे तो सब बातें बिगड़ जायें । इसलिए भक्तिमें तन्मय होना ब्राह्मणके सुखकी सामग्री नहीं।