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गोरा

गोरा हो, परन्तु विलायती बोली कहां जायगी । जो कहता हूँ उसे मानो, यह सब करना छोड़ दो। गोरा सिर झुकाकर चुप हो रहा । कुछ देर बाद बोला- यदि मैं प्रायश्चित न करूंगा तो शशिमुखीके व्याह में मैं सबके साथ बैठकर भोजन नहीं कर सकूँगा। कृष्णदयाल उत्साहित होकर बोले-अच्छा तो इसमें हर्ष ही क्या है । तुम अलग ही बैठकर खा लेना तुम्हारे लिए अलग श्रासन रखवा दिया जायगा। गोरा-तो समाजमें मुझे अलग होकर रहना पड़ेगा। कृष्णदययाल-यह तो अच्छा ही होगा। अपने इस उत्साह से गोरा को विस्मित होते देख उन्होंने कहा-देखते नहीं हो, मैं किसी के साथ भाजन नहीं करता निमन्त्रण होने पर भी किसीके हाथका छुश्रा नहीं खाता । समाजके साथ मेरा क्या संपर्क है। तुम जिस सात्विक मावसे जीवन बिताना चाहते हो उसके लिए तुम्हें भी इसी मार्गका अवलम्बन करना उचित है। इसीमें तुम्हारा मङ्गल है। कृष्णदयालने दोपहरके समय अविनाशको बुलाकर कहा-मालूम होता है, तुम्ही सबने मिलकर गोराको नचाने का सामान किया है। अविनाश-यह आप क्या कहते हैं। आपही का गोरा हम लोग को नचा रहा है, वह आप तो कम ही नाचता है। कृष्णदयाल-परन्तु मैं तुमसे कहता हूं कि तुम लोगों का प्रायश्चित्त न होगा। मेंरी उसमें सम्मति नहीं। अभी सब रोक दो। अविनाश सोचने लगा बूढ़े की यह कैसी जिद है। इतिहासमें ऐसे बहुत लोग पाये जाते हैं जो अपने पुत्रके महत्व से एकदम अपरिचित थे। हमारे कृष्णदयाल भी उसी श्रेणी के हैं। यदि ये दिन रात सन्यासियों के पास न रहकर अपने बेटेसे शिक्षा ग्रहण करते तो इनका विशेष उप- कार होता।