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गोरा

गोरा अधिनाश बड़ा चतुर आदमी था। जब वाद प्रतिवाद में कोई फल न देखता था यहाँ तक कि "नैतिक-प्रभाव" की भी सम्भावना कम पर देखने वह बृथा विवाद न करता था। तब उसने कहा-अच्छा जो आपकी सम्मति नहीं है तो न होगा । पर बात यह है कि उसका सब आयोजन हो चुका है, निमंत्रण पत्र भी जहाँ-तहाँ भेजे जा चुके हैं । इसमें अब बिलम्ब भी नहीं है न हो तो एक काम किया जाय । गोरा अलग रहे हमी लोग प्रायश्चित्त करलें । देशीय लोगोंके पापका तो अभाव नहीं है। अविनाशके आश्वासन-वाक्यसे कृष्णदयाल निश्चिन्त हुए । कृष्णदयाल को गोराकी बात पर विशेष श्रद्धा कभी नहीं थी अाजभी उसने उनके आदर्शको हृदयसे स्वीकार न किया । यद्यपि वह देशोपकार के आगे माँ बापके हुक्मकी पाबन्दीको नहीं मानता था, तो भी आज दिन भर उसके मनमें पिताके निशेध वाक्य पर दुख होता रहा । कृष्ण- दयाल की सब बातोंमै उसे एक छिपे हुए सत्य रहस्यकी धुंधली छाया मालूम होती थी। जितना ही वह सोचता था उतना ही उसका सन्देह दृढ़ होता जाता था। मानों जागने पर वह एक दुःस्वप्न से दुःख पा रहा था। उसे मालूम होने लगा जैसे कोई उसे चारों ओरसे ढक कर पंक्ति से बाहर फेंक देने की चेष्टा कर रहा हो । आज उसको अपनी एकाकिता एक बृहत रूप धारण किये दिखाई दी। उसके आगे कर्मक्षेत्र बहुत लम्बा चौड़ा है, काम भी बहुत बड़ा है, किन्तु वह अकेला खड़ा है उसके पास और कोई नहीं है।