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गोरा

मोरा उसने उसी समय कागब निकाल कर सूब और के साथ कोने अक्षरों में लिखा कि "विवाह ही नारी के जीवन की साधना का पाई है; ग्रहस्थ-धर्म ही उसका प्रधान धर्म है। यह विवाह इच्छा-पूर्ति के लिये नहीं, कल्याण साधना के लिये है। गृहस्थाश्रम चाहे मुखधा हो, चाहे दुखका, एकाग्र मनसे उसी गृहस्थाश्रमको ग्रहण करके, स्त्री, सानी और पवित्र होकर धर्म को ही घरमें मूर्तिमान करके रसना रमीका कर्तव्य है ! यही स्त्रियों का व्रत है।" हरिमोहिनीने कहा-इसके साथ ही बैलाशके बारेमें भी कुछ लिख देते, तो अच्छा होता मैया। गोरा-ना, मैं उसको नहीं जानता । उसकी सिपारिश नहीं कर सकूँगा। हरिमोहिनीने उस कागज को प्रामिसरी नोटकी तरह बरे यत्न से मोड़कर अपने आंचल में बाँध लिया और घर को लौट गई। सुचरिता उस समय भी आनन्दमयी के निकट ललिता में थी । वहाँ इस प्रसङ्गकी अालोचनामें सुविधा न होने और ललिता तथा आनन्दमयीके मुख से विरुद्ध बातें होकर सुचरिताके मनमें दुविधा पैदा हो सकती है, यह आशंका करके हरिमोहिनी वहाँ नहीं गई । उन्होंने सुचरिताको घरमें ही बुला भेजा । कहला भेजा कि वह दूसरे दिन दोपहर को उनके पास आकर मोजन एक बहुत जरूरी और खास बात है। तीसरे ही पहर वह फिर चली जा सकती है। दूसरे दिन दोपहरको सुचरिता अपना मन कठिन करके ही आकर उपस्थित हुई । वह जानती थी कि मौसी उससे व्याह की बात ही फिर और किसी प्रकारसे कहेंगी। उसका यह दृढ़ संकल्प था कि आज वह बहुत कड़ी जबान देकर इस प्रसङ्गको आज ही एकदम खत्म कर देगी। सुचरिताका मोजन समाप्त हो जाने पर हरिमोहिनीने कहा-कल सन्ध्या के समय मैं तुम्हारे गुरु के घर गई थी। घर