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गोरा

गोरा दो-चार ४१६...] सुचरिताका अन्तःकरण कुण्ठित हो गया। मौसी फिर क्या गोरा की कोई बात उठाकर उसका अपमान कर आई हैं ? हरिमोहिनीने कहा-डरो नहीं राधारानी, मैं उनके साथ लड़ने भिड़ने नहीं गई थी। अकेली थी सोचा जाऊँ। उनके पास, अच्छी बातें सुन श्राऊं। बातों ही बातोंमें तुम्हारा जिक्र खड़ा हुआ मैंने देखा, उनकी भी वहीं राय है। स्त्री जातिका बहुत दिन क्वारी रहना वह भी अच्छा नहीं बताते। वह कहते हैं शास्त्रके मतसे वह अधर्म है। वह साहब लोगोंके यहाँ चल सकती है, हिन्दू के यहाँ नहीं । मैंने उनसे अपने कैलाशके सम्बन्ध की बात भी खोलकर कही थी। मैंने देखा गौरमोहन बाबू बेशक ज्ञानी श्रादमी हैं । लज्जा और अप्रिय प्रसङ्ग उठनेमें कष्ट से सुचरिता जैसे मरी जा रही थी। हरिमोहिनीने कहा-तुम तो उन्हें अपना गुरु समझ कर मानती हो ! उनकी श्राज्ञाका तो पालन तुम्हें करना होगा ? सुचरिता चुप रही। हरिमोहिनीने फिर कहा-मैंने उनसे कहा- भैया, तुम खुद चलकर उसे समझा दो वह हम लोगोंकी बात तो मानती ही नहीं। उन्होंने कहा-ना, उनसे अब फिर भेंट करना उचित न होगा ! उसके लिये हमारा हिन्दू समाज रोकता है । तब मैंने कहा- फिर अब और उपाय क्या है ? इसपर गौरमोहन बाबू ने अपने हाथसे लिख दिया है-देखो ? इतना कहकर हरिमोहिनीने धीरे-धीरे वही कागज अपने आँचल से खोला । उसे खोलकर सुचरिताके सामने उन्होंने रख दिया। सुचरिताने पढ़ा । उसका दम जैसे घुटने लगा, वह काठ की पुतली की तरह जड़ होकर बैठी रही। उस लिखावटके भीतर ऐसी कोई बात न थी, जो नई या असंगत हो। यह भी न था कि उन बातोंके साथ सुचरिता का मत न मिलता हो। किन्तु हरिमोहिनीके हाथ से विशेष करके अपना यह सुचरिताके पास मेज देने का जो मतलब निकलता था, वही सुचरिता को तरह-