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गोरा

गोरा सुचरिता से अधिक सहा नहीं गया । वह कह उठी-मौसी, तुम क्यों बार-बार यही एक बात पकड़ कर पीछे पड़ गई हो ! ब्याहके बारे में मैं बाबूजी से कोई बात तो कहने नहीं जा रही हूँ। मैं यही एक बार उनके पास जाऊंगी। परेश बाबूके निकट ही सुचरिताके लिये सान्त्वना का स्थान था। परेशके पर जाकर सुचरिताने देखा, वह एक लकड़ीके बक्समें अपने कपड़े लत्ते रखने में लगे हुये हैं। सुचरिताने पूछा बाबू जी यह क्या है ? परेशने जरा हँस कर कहा-बेये, मैं जरा शिमले सैर करने जा रहा हूँ, कल सबेरे की माड़ीसे जाऊँगा । परेशकी इस जरा-सी हँसीके भीतर एक भारी विप्लवका इतिहास छिपा हुआ था, और यह सुचरिता की तीक्ष्ण बुद्धि से छिपा नहीं रहा । घरमें उनकी श्री कन्या आदि और बाहर उनके बन्धु-बान्धव लोग उन को तनिक भी शांतिसे रहने नहीं देते थे। कुछ दिनके लिये मी अगर दूर जाकर कुछ समय बिता आवे तो उनकी जान बचे। तब घरमें उन्हें केन्द्र करके केवल एक आवर्त (पवण्डर ) धूमता रहेगा । कल उन्होंने विदेश जाने का इरादा किया है, और आज उनका कोई अपना आदमी उनके कपड़े तक रख देनेको निकट नहीं आया, उन्हें अपने हाथसे ही यह काम करना पड़ रहा है; यह दृश्य देखकर सुचरिताके हृदयको बड़ी चोट पहुँची। वह परेश बाबूको हटाकर आप ही वह काम करने लगी। पहले उसने सन्दूक के सब कपड़े बाहर निकाल डाले, उसके बाद विशेष यत्न के साथ कपड़ों को तहाकर कायदे से सन्दूक के भीतर रखना शुरू किया। सुचरिता ने कपड़ों के ऊपर परेश बाबूके सदा पढ़ने की किताबें इस तरह रखी, जिसमें उन्हें निकालने में कुछ असुविधा न हो, और कपड़े भी उलझने न पावें। इस तरह बक्स को भरते-मरते वीरे-धीरे सुचरिताने पूछा-बाबू जी, तुमः स्या अकेले ही जाओगे!