पृष्ठ:गोरा.pdf/४९

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गोरा

। गोरा [ ४६ हाथसे पत्र लिखता है। वहीं उसके भक्त लोग उसके मुखसे उपदेश सुनने के लिए पाते हैं, और उसके सहकारी होकर अपनेको धन्य मानते हैं । उस दिन भी गोरा उस समय उसी कार्यालयमें काम करने गया था। विनय एक दम जैसे दौड़ कर ही आनन्दमयीके कमरे में पहुंचा। अानन्दमयी उस समय भोजन करने बैठी थीं और लछमिनिया उनके पास बैटी हुई पंखेसे हवा कर रही थी। आनन्दमयीने आश्चर्यमें आकर कहा-क्यारे विनय, प्राज तुझे हुआ क्या है ? विनय उनके सामने बैठ गया, और कहने लगा--भा बड़ी भूख लगी है, मुझे खाने को दो। आनन्दमयी व्यस्त हो उठी बोली-तब तो तूने मुशकिलमें डाल दिया । रसोई बनानेवाला महाराज तो चला गया -तुमलोग फिर । विनयने कहा मैं क्या महाराजके हाथकी रसोई खाने आया हूँ ! महराजके हाथकी रसोई खाना होता तो घरके महाजने क्या दोष किया था ? मैं तुम्हारी थालीका प्रसाद खाऊँगा माँ। लछमिनिया ला एक गिलास पानी तो दे ? लडमिनिया जैसे पानी ले आई वैसेही विनय एक साँसमें घट घट उसे पी गया । तब अानन्दनयो ने और एक थाली मँगा कर स्नेहपूर्वक अपनी थाली का अन्न रख दिया । विनय जैसे बहुत दिनोंका भूखा था इस तरह बैठ कर खाने लगा। आनन्दमयी के मनको एक वेदना आज दूर हो गई । उसके मुखको प्रसन्नता देखकर विनय की छाती परका एक बोझ जैसे उतर गया। आनन्द- मयी तकियेका गिलाफ बैठकर सीने लगी । विनय आनन्दमयीके पैरोंके पास ऊपर उठे हुए एक हाथ पर सिर रखकर लेट गया और संसारका और सब कुछ भूलकर ठीक पहलेके दिनोंकी तरह आनन्दपूर्वक बातें करने लगा। फ००४