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गोरा

४९३ कुष्णदवाल-जब सिपाही विद्रोह हुआ था, उस समय हम हटावेमें थे। तुम्हारी मनि बागी सिपाहियोंके डरसे भागकर रातको हमारे घरमें आश्रय लिया था। तुम्हारे बाप उसके पहले ही लड़ाई में मारे गये थे उनका नाम था- गोराने गरजकर कहा -नाम बतानेकी जरूरत नहीं। मैं नाम जानना नहीं चाहता। गोरा के उस उत्तेजनासे विस्मित होकर कृष्णदयाल ठहर गये पीछे बोले-वे आयरिश थे। तुम्हारी माँ उसी रात तुमको प्रसव कर मर गई सबसे तुम बराबर पुत्रकी भांति मेरे घरमें पाले पोसे गये। एकही क्षणमें गोरा को अपना जीवन एक अद्भुत स्वपकी भांति दीखने लगा। बाल्यावस्थासे अब तक उसके जीवनकी जो दीवार तैयार होती आ रही थी वह एक बारगी नष्ट हो गई । मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ, उसका वह ज्ञान जाता रहा । इतने दिन तक मैंने अपनेको क्या मानकर क्या किया और अब क्या करूँगा, उसके लिए एक कठिन समस्या हो गई । कहाँ तो वह अपनेको आनन्दमयीका पुत्र मानकर हिन्दू धर्मका प्रचरिक बन बैठा था और कहाँ अब वह आयरिशका मातृ पितृ हीन बालक है । मानों उसके लिए सृष्टि ही बदल गई, उसके माँ नहीं, बाप नहीं, जाति, नहीं, नाम नहीं, गोत्र नहीं, देवता नहीं ! उसके पास नहीं के सिवा और कुछ भी नहीं । अव मैं क्या करूँ, किस धर्मका अवलम्बन कलें, किस ओर अपना लक्ष्य स्थिर कसै-यह कुछ भी वह निश्चय न कर सका । वह अपनेको एक दिशाहीन अद्भुत शून्य के भीतर सम्प्राप्त देख हक्का बक्का सा होगया । उसका मुंह देख कोई उससे और बात कहनेका साहस न कर सका। इसी समय एक पूर्व परिचित बंगाली चिकित्सकके साथ अँग्रेज डाक्टर सिविल सर्जन आ पहुँचा। डाक्टरने जैसे रोगीकी ओर देखा वैसे गोराकी ओर भी देखे बिना न रह सका, सोचा, यह आदमी कौन है ? तब भी गोरा के सिरमें मिट्टीका तिलक था और स्नान के बाद जो रेशमी वस्त्र धारण किये ,