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गोरा

विनय ने लड़कपन से ही कलकले में किराये के मकान में रहकर पढ़ा लिखा है । संसार के साथ अब तक उसका जो कुछ परिचय हुअा है सो केवल पुस्तकों के ही साथ ! किसी भले घराने की बहू बेटी के साथ कभी किसी दिन उसकी जान पहचान या मेल मुलाकात नहीं हुई थी।

श्राइने पर दृष्टि डालकर उसने देखा कि उसमें जिस मुख का प्रतिविम्ब दिखाई देता है वह बहुत ही सुन्दर है । उसकी आंखों में इतना ज्ञान नहीं था कि उसके मुन्दर मुख की प्रतीक रेखा को अलग अलग करके देखला, केवल उस घराये हुये लेह के मारे मुके हुये उस तरुणी के तरुण मुख की कोमलता मंडित उज्वलता भर को ही विनय देख सका और जो उसे सृष्टि के तत्काल प्रकट हुये एक नवीन आश्चर्य की तरह जान पड़ी। थोड़ी देर के बाद बुद्ध ने धीरे धीरे ग्राखें खोली और "वेटी' कहकर लम्बी सांस छोड़ी। लड़की की श्राखों से आंसू छलक आये। उसने वृद्ध से पूछा-"पिता जी ! तुम्हें कहां चोट लगी है।"

यह मैं कहां आ गया" कहकर वृद्ध ने उठने की इच्छा प्रकट किया, पर विनय ने उसी जरा उन्हें रोक कर कहा--"अभी श्राप उठियेगा नहीं कुछ देर ठहरिये डाक्टर साहब आते होंगे।"

तब वृद्ध को उस दुर्घटना की याद आई। उन्होंने कहा-"सिर में यहां पर कुछ पीड़ा सी हो रही है पर चोट भारी नहीं है । डाक्टर को चुलाने की तो कोई अावश्यकता न थी।"

कुछ देर के बाद डाक्टर साहब अपने डाक्टरी साज सामान के साथ कमरे में दाखिल हुये । वृद्ध की शारीरिक अवस्था को देखकर उन्होंने कहा- "विशेष कोई बात नहीं है ! गर्म दूध के साथ थोड़ी सी ब्रान्डी मिलाकर पिलाने से सब टीक हो जायगा ।" यह कह दवा की एक छोटी सी शीशी देकर डाक्टर साहब चले गये ! उनके जाते ही वृद्ध अत्यन्त संकुचित और व्यग्र हो उठे। लड़की उस वृद्ध के मन के भाव को समझकर कहने लगी-- "पिता जी ! श्राप चिन्तित क्यों होते हैं। डाक्टर की फीस और दवा के दाम घर से यहाँ भेज दिये जायगे।"