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गोरा

गोरा [ ६१ किन्तु शिक्षित स्वदेशवासी बाबू . साधारण लोगोंकी दुर्गति देख विदेशीके साथ मिलकर अपनी श्रेष्ठताके अभिमानसे हँसता है, यह पैशा- चिक लीला गोराको जलाने लगी । देशके सर्वसाधारण लोगोंने इस प्रकार अपनेको सर्वथा अपमान और दुर्व्यवहारके अधीन कर रक्खा हैं | इन्हें पशुवत् समझने पर भी वे अपना पशुत्व स्वीकार करते हैं और सबके यहाँ यह बात स्वाभाविक और संगत समझी जाती है । इस विचारकी जड़में जो एक देशव्यापी गहरा अज्ञान मरा है, उसके लिए गोरा का हृदय मानों फटने लगा। किन्तु सबकी अपेक्षा अधिक खेद उसके मनमें यह हुआ कि देशके इस चिरकालिक अपमान और दुर्गति को पढ़े-लिखे लोग अपने ऊपर न लेकर अपनेको निष्ठुर भावसे अलग रखने में निःसंकोच हो अपनी इज्जत समझते हैं। इसीसे शिक्षित लोगोंकी पढ़ी हुई विद्या और नकल करने के संस्कारकी एकदम उपेक्षा करनेही के लिए आज गोरा माथे में गोपी-चन्दनका तिलक लगा और देशी जूता पहन छाती फुलाकर ब्रामसमाजी के घर आया है । विनय मन ही मन समझ गया कि गोराका आजका यह पोशाक साधारण नहीं, सामरिक है । गोरा क्या जाने क्या कर बैठे, यह सोचकर विनयके मनमें कुछ भय, संकोच और विरोध का भाव उदित हुआ। वरदासुन्दरी जब विनयके साथ बातचीत करती थी तब सतीश छतके एक कोने में लटू धुमाकर खेल रहा था । गोरा को देखकर उसका लटू घुमाना बन्द हो गया। वह धीरे धीरे विनयके पास खड़ा होकर टकटकी बाँध गोराकी ओर देखने लगा और विनयके कानमें धीरे से कहा-क्यों न्यही तुम्हारे मित्र हैं ? विनय-हाँ। गोराने छत पर पहुँचते ही एक बार विनयके मुंहकी और इस तरह देखा, मानो उसे देखा ही नहीं । परेश बाबूको नमस्कार करके वह मेजके पाससे एक कुरसी खींचकर बैठ गया । लड़कियोंको यहाँ एक तरफ बैठी हुई देखना गोराने मर्यादाके विरुद्ध समझा । 1