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६२ ]
गोरा

६२ ] वरदासुन्दरी इस असभ्यके पाससे लड़कियोंको ले जाना चाहती थी इसी समय परेशबाबूने उसकी ओर देखकर कहा.-इनका नाम गौरमोहन है, ये मेरे मित्र कृष्णदयाल बाबूके लड़के हैं । तब गोराने उनकी ओर देखकर प्रणाम किया । यद्यपि विनयके मुँह से प्रसंगवश सुचरिताने गोराकी बात पहलेही सुनी थी तो भी इस बात का उसे विश्वास न हुआ कि यही विनय का मित्र होगा । गोराका मेष देखतेही सुचरिताको उसपर कुछ घृणा उत्पन्न हुई । अंगरेजी पढ़े लिखे किसी आदमी में बनावी हिन्दूपन देखकर उसे सहन कर सकनेका संस्कार या सहिष्णुता सुचरितामें न थी। परेश बाबू गोरासे अपने लड़कपनके साथी कृष्णदयालका कुशल समाचार पूछा । फिर अपनी छात्रावस्थाकी बातको सोचकर बोले-उस समय कालेजमें हम दोनों एक मतके थे। दोनों मनमौजी थे। हमलोग आचार व्यवहार कुछ न मानते थे-होटल में बैठकर मौजसे खाना ही हम लोगों का काम था। हम दोनों कभी कभी शामको गोलदिग्धी में मुसलमान की दूकान पर बैठकर कबाब खाया करते थे, और फिर आधीरात तक बैठकर हिन्दूसमाज के सुधारकी समालोचना किया करते थे। वरदासुन्दरीने पूछा-अव वे क्या करते हैं ? गोरा-अब वे हिन्दू आचार विचार से रहते हैं। हिंन्दू आचार विचार का नाम सुनते ही वरदासुन्दरीका सारा शरीर क्रोधसे जल उठा। वह बोली- उन्हें लज्जा नहीं आती ? गोरा ने मुसकुराकर कहा लज्जा करना दुर्बल स्वभावका लक्षण है। कोई कोई वापका परिचय देने ही में लजाते हैं। वरदा०-पहले तो वे ब्राह्म थे न ? गोरा-मैं भी तो किसी समय ब्राह्म था । वरदा०-अब आप साकार उपासना में विश्वास करते हैं ? गोरा-मेरे मनमें ऐसा कुसंस्कार नहीं है कि मैं साकार पर बिना