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गोरा

गोराखड़ा रहा गाड़ी रवाना होते समय उस लड़की ने दोनों हाथों से विनय को प्रणाम किया । विनय इस नमस्कार के लिए बिल्कुल ही तैयार नहीं था इसी कारण वह हतबुद्धि सा होकर उसके उत्तर में कुछ न कह सका । इतनी सी अपनी त्रुटि लेकर घर में लौट आ कर, यह बारबार अपने को धिक्कारने लगा। विनय ने इन लोगों से मुलाकात होने के समय से विदा होने के समय तक के अपने आचरण की आलोचना करके देखा-- उसे जान पड़ने लगा कि आदि से अंत तक उसके सारे व्यवहार में केवल असभ्यता ही प्रकट हुई है ! किस समय क्या करना चाहिए था, क्या कहना चाहिए था, इन्हीं बातों को लेकर वह मन ही मन केवल वृथा आन्दोलन करने लगा। उसने अपने कमरे में लौट पा कर देखा, जिस रूमाल से उस लड़की ने अपने पिता का मुंह पोछा था, वह रूमाल विस्तर पर पड़ा था। विनय ने चटपट वह रूमाल उठा लिया। उसके मन में वही भिक्षुक का गीत ध्वनित होने लगा-

"खाँचार भितर प्राचिन् पाखी केम्ने आसे जाय।"

दिन चढ़ चला, वर्षा की धूप तेज हो उठी, गाड़ियों का तांता तेजी के साथ आफिसों की ओर जाने लगा विनय अपने दिन के किसी भी काम में मन नहीं लगा सका । उसकी दृष्टि में उसका यह छोटा सा घर और चारों ओर विस्तृत कुत्सित कलकत्तापुरी किसी मायापुरी की तरह हो उटी। इस वर्षा ऋतु के प्रभात की प्रदीप्त बामा ने उसके मस्तिष्क के भीतर प्रवेश किया, वह उसके रक्त में प्रवाहित हो उठी-उसके अन्तःकरण के सामने एक ज्योतिर्मय पर्दा सा पड़ गया, जिसने उसके प्रति दिन के जीवन-की सारी तुच्छता को ढंक दिया।

इसी समय विनय की दृष्टि सड़क पर पड़ी। उसने देखा, एक सात आठ वर्ष का लड़का खड़ा हुआ उसके घर का नम्बर देख रहा है। विनम ने ऊपर से कहा -यही है, यही घर है। उसके मन में इस बारे में बिल्कुल सन्देह नहीं हुआ कि लड़का उसी का घर ढूँढ़ रहा था। विनय चटपट सीढ़ियों पर स्लीपर चटचट करता हुआ नीचे उतर गया, अत्यन्त श्राग्रह --