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गोरा

गोरा [८१ गोरा--मुझे सन्देह होता है कि तुम अभिमन्यु की तरह प्रवेश करने की राह जानते हो-निकलने की राह नहीं जानते। विनय-सो-हाँ --यह तुम्हारा खयाल ठीक भी हो सकता है। यही शायद मेरा जन्मका स्वभाव है मैं जिसे श्रद्धा या प्यार करता हूँ, उसे फिर छोड़ नहीं सकता। मेरे इस स्वभाव का परिचय तुमने भी पाया है। गोरा-तो अबसे वहाँ बराबर आना जाना जारी रहेगा? विनय-ऐसी तो कोई बात नहीं है कि अकेले मेरा ही आना जाना भारी रहेगा। तुममें भी तो चलने फिरनेकी शक्ति है, नुम एक दम स्थावर पदार्थ तो हो ही नहीं। गोरा---खैर, मैं तो आऊँ जाऊँगा, लेकिन तुम्हारे जो लक्षण मैंने देखे, उनसे तो यही जान पड़ता है कि तुम बिल्कुल अड़-मूलसे ही जाने को तैयार हो । गरम चाय कैसी लगी थी ? विनय-कुछ कड़ी लगी थी। मोरा-तो फिर? विनय-न पीना उससे नी कड़ा लगता। गोरा--तो समाजके नियमों का पालन क्या केवल भलमन्सी पालन नात्र है। विनय-सव समय यह बात नहीं है । किन्तु देखो गोरा समाज के साथ जहाँ हृदयकी टक्कर हो, वहाँ पर मेरे लिए...। गोरा अधीर हो उठा। उसने विनयको अपनी बात पूरी ही नहीं करने दी । बीच ही में गरजकर कहने लगा-क्या कहा-हृदय ! तुम समाजको छोटा, तुच्छ, देखते हो, इसीसे बात बातमें समाजके साथ तुम्हारे हृदयकी टक्कर होती है । किन्तु समाजको चोट पहुँचानेसे उसकी वेदना कितनी दूर तक जाकर पहुँचती है, इसका जो तुम अनुभव करते, तो तुम्हे अपने इस हृदयकी बात उठाते लज्जा मालूम होती । परेश बाबू की लड़कियोंके मनको जरा सी चोट पहुँचाने से तुमको बड़ा कष्ट ० नं. ६