पृष्ठ:गोरा.pdf/८५

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1 [१३] इसी तरह कई दिन बीतने के बाद, एक दिन दोपहरको भोजन के उपरान्त गोराको एक चिट्ठी लिखनेके विचारसे कागज कलम लेकर विनय बैठा था इसी समय नीचेसे किसीने "विनय" कह कर पुकारा विनय कलम फेंक कर चटपट नीचे उतरा, और आगन्तुकको देख कर बोला-महिम दादा, अाइये, ऊपर चलिए । महिमने ऊपर आकर बिनयके पलंग पर अच्छी तरह आसन जमाया । घरके साज सामानको एक बार सरसरी तौरसे अच्छी तरह देख कर महिम- ने कहा-देखो आज जो रविवारके दिन की नींद को बिल्लकुल मिट्टी करके तुम्हारे यहाँ आया हूँ इसका एक विशेष कारण है। तुमको मेरा एक उपकार करना होगा। विनयने पूछा-क्या उपकार ? महिमने कहा---पहले बचन दो, तब कहूँगा। विनय--मुझसे उसका होना अगर सम्भव होगा तभी तो? महिम-हाँ, केवल तुम्हारे ही द्वारा सम्भव है। और करना है तुम्हारे एक बार "हाँ" भर कह देने से हो जायगा ! विनय तो फिर नुझसे इस तरह क्यों आप कहते हैं ? आप तो जानते हैं, मैं आप लोगों के घरका ही आदमी हूँ ! यह तो हो ही नहीं सकता कि संभव होने पर मैं आपका उपकार करनेसे मुँह मोड़ जाऊ ! महिमने जेबसे एक पत्तेकी पुड़िया निकाली और उससे दो पान निकाल कर विनयको दिए । शेष चार पान अपने मुखमें रख कर उन्हें चबाते-चबाते कहा---मेरी शशिमुखों को तो तुम जानते ही हो। देखने सुनने में कुछ बुरी नहीं है, अर्थात् बापको बिलकुल नहीं पड़ी है । उसकी अवस्था दस सालके लगभग हो पाई है। अब उसका ब्याह कर देनेका कुछ नहीं .)