मोड्वीया की लड़की प्रत्येक शनिवार को जब शहर के साों घंटाघर , सान्ध्य -प्रार्थना के निमित्त अपने घरटे बजाते तो उनकी गहरी आवाज़ का जवाव पहाड़ी की तलहटी में बनी फैक्टरियों की सीटियों की कर्कश ध्वनि से दिया जाता और कई मिनट तक दो भिन्न प्रकार की टकराती हुई श्रावाजे हवा में गूंजती रहती जो परस्पर अयन्त भिन्न थी --एक स्नेहपूर्वक आह्वान करती तथा दूसरी अनिच्छा पूर्वक वाहर निकाल देती । और हमेशा प्रत्येक शनिवार को , फैक्टरी के दरवाजे से बाहर निकलते समय पावेल माकोव - वहाँ का एक कारीगर - दुविधा और लज्जा का अनुभव करता । वह धोरे धोरे घर की ओर चलता । उसके साथी उससे थागे निकल जाते । वह चलते हुए अपनी नुकीली दादी को उँगलियों से सुजमाता और अपराधी के समान हरे कालीन से ढकी हुई पहाड़ी की ओर देयता जाता जिसकी गोट पर फलों के वाग धने लगे हुए थे । फलदार पेड़ों वाले चागों की काली मजबूत दीवाल के पीछे से भरे तिकोने मकानों का ऊपरी भाग, ढलुवाँ हुतों की उभरी हुई खिड़कियों, चिमनियों का ऊपरी हिस्सा श्राकाश में काफी ऊँचाई पर बने हुए छोटी चिड़ियों के वॉसले जो लम्बे बाँसों पर टंगे हए थे, उससे भी ऊपर बिजली द्वारा भस्म किये हुये एक चीड़ के पेर का है और उसके नीचे मोची वास्याजिन का मकान श्रादि दिखाई देते ये । वहीं पावेल की स्त्री , उसकी बेटी और उसका ससुर उसका इन्तजार कर रहे थे ।
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