पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/४१

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मालवा "उसने ऐसा क्यों किया ?" "कौन जाने "" याकोव ने पूर्ण उदासीनवापूर्वक कहा । रेत के टीलों पर से हवा और बहरों द्वारा उड़ाई हुई वालू ने उन्हें .. घेर लिया। दूर से मछली पकड़ने वाली जगह पर होने वाले शोरोगुल को , अस्पष्ट और तेज आवाजें सुनाई देने लौँ। सूरज वालू को अपनी किरणों से गुलाबी रंग में रंगता हुआ डूब रहा या। पेड़ों की छोटी डालों पर लगे पत्ते समुद्र से पाती हुई हवा में धीरे धीरे फड़फड़ा रहे थे। मालवा खामोश थी। वह ऐसी लग रही थी मानों गौर से कुछ सुन रही हो। "तुम आज वहाँ उस पहाड़ी के किनारे क्यों नहीं गई?" याकोव ने अचानक उससे पूछा। "इससे तुम्हें क्या मतलब ?" याकोव ने अपनी खिों के कोनों से उस औरत को मुखे की तरह देखा, यह सोचते हुए कि कैसे वसाए कि वह कहने के लिए व्याकुल हो "जब मैं अकेली होती हूँ और चारों ओर खामोशी छाई रहती है," मालवा उदास होकर वोली-"मैं रोना चाहती हूँ..... ..." या ....." गाना । मगर मैं अच्छे गीत नहीं जानती और रोने में मुझे मॅप लगती है ............." याकोव ने उसकी आवाज सुनी-यह धीमी और कोमल थी परन्तु जो कुछ उसने कहा उसने याकोव के हृदय पर कोई प्रभाव नहीं डाला। इसने मालवा के लिए उसकी भूख को और भी ज्यादा तेज कर दिया। "अच्छा, अब मेरी वात सुनो," उसने धीमी श्रावाज में उसके नजदीक खिसकते हुए परन्तु अपनी निगाहें उसकी तरफ से हटाए हुए कहा, "सुनो जो कुछ मैं तुमसे कहूंगा मैं नवान हूँ . " "और मूर्ख, वज़ मूर्ख " मालवा ने उसे बोलने से रोकते हुए अपना सिर हिलाकर कहा।