पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/४६

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मालवा मोतिया रंग के बादलों को प्रतिविम्बित करते हुए झप कियाँ ले रहा था । तट के पहाटी डाल पर ऊंघते हुए मछुए मछली पकड़ने वाली नाव में महली उठाने की बढी मशीन लाद रहे थे । जाल का एक भूरा ढेर रेत पर नाव की तरफ रंगता हुया बढ़ा और परतों के रूप में उसके पेंदे में जा पड़ा। सर्योझका हमेशा की तरह नंगे सिर और अधनंगा, अपनी भारी श्रापाज मे मछुओं को प्राज्ञा देता हुथा, नाव पर पड़ा था । हवा उसकी कमीज के छेदों में खेल रही थी और उसके विरघरे हुए लाल बालों को लहरा रही थी। "यामिली ! हरे पतबार कहाँ है ?" कोई चोखा। वामिली, अक्टूबर महीने के दिन की तरह घृरता हुया जाल को गाय में इकट्ठा कर रहा था और मर्योझका होठ चाटते हुए उसकी झुकी हुई पीक को घूर रहा था । यह इस बात का लक्षण था कि वह अपनी थकावट को मिटाने के लिए शराब चाहता है। "तुम्हारे पास थोडी सी वोदका है ?' उसने पूछा। "हाँ," वासिली ने उदासी से उत्तर दिया । "ऐसी दशा में मैं बाहर नहीं जाऊँगा । यहीं किनारे पर ठहरूँगा । "सावधान !" किनारे में कोई चीमा । "छोर दो ! सावधानी से मोगका ने प्राना दी पोर नार में नीचे उनर पाया । "तुम लोग जानो," उसने श्रादमियों में कहा । मैं यहीं __ ठहर्मगा । ध्यान रचना कि जाल खूब चोदा फैलाया जाय । उमे उलका मन -दिना, शोर उसको ठीक तरह से ता करना, गांठ मन बांधना।" नार पानी में धफेल दी गई, मग उस पर घर गए और अपनी पतवारों को एकद, उन उठाए गए, चलने की धाज्ञा का पन्नजार पारने लगे। पतवार एक मार पानी में पो और नार संध्या की धली गामा में पमह उप पिम्न्न सागर में चल पटी।