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अलंकार-विधान

यह निश्चयालंकार सीता के विरह-संताप का उत्कर्ष दिखाने में सहायक है। इसी विरह-संताप की प्रचंडता असिद्धास्पद हेतू- स्प्रेक्षा द्वारा भी दिखाई गई है——

जेहि बाटिका बसति तहँ खग मृग तजि तजि भजे पुरातन भौन।
स्वाम-समीर भेट भइ भोरेहु तेहि मग पग न धरयो तिहुँ पौन॥

मरते हुए जटायु से राम कहते हैं कि मेरे पिता से सीता-हरण का समाचार न कहना।

सीता हरन, तात, जनि कहेउ पिता सन जाइ।
जो मैं राम तो कुल सहित कहहि दसानन श्राइ॥

यह 'पर्यायोक्ति' राम की धोरता और सुशीलता की व्यंजना में कैसी सहायता करती हुई बैठी है राम सीता-हरम के समा- चार द्वारा अपने पिता को स्वर्ग में भी दुखो करना नहीं चाहते। साथ ही अपनी धोरता भी अत्यत संकोच और शिष्टता के साथ प्रकट करते हैं। 'राम' कैला अर्थातर-संक्रमित पद है।

राम की चढ़ाई का हाल सुनकर इतनी घबराहट हुई, इतनी आशंका फैली कि "बसत गढ़ लक लंकेस रावन अछन लंक नहिं खात कोउ भात राँध्यो।" यहाँ आशंका को व्यक्त करने में लक्षणा और व्यंजना के मेल से 'विभावना कितना काम दे रही है। देखिए, यह रूपक रतिभाव की अनन्यता दिखाने के लिये कैसा दृश्य ऊपर से ला रहा है——

तृषित तुम्हरे दरस कारन चतुर चातक दास।
बपुष-बारिद बरषि छबि-जल हरहु लोचन प्यास॥

एक नई उपमा देखिए। जब कोई राजा धनुष न तोड़ सका, जनक ने क्षोभ से भरे उत्तेजक वचन कहे जिन्हें सुनकर लक्ष्मण को तो अमर्ष हुआ, पर अभिमानी राजाओं की यह दशा हुई——

"जनक-बचन छुए बिरवा लजारू के से बीर रहे सकल सकुच सिर नाइ कै।"