पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/५२

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४८
गोस्वामी तुलसीदास

४८ गोस्वामी तुलसीदास जद्यपि गृह सेवक सेवकिनी । बिपुल सकल सेवा-बिधि गुनी ॥ निज कर गृहपरिचरजा करई । रामचंद्र श्रायसु अनुपरई ॥ जिस वर्णाश्रम-धर्म का पालन प्रजा करती थी, उसमें ऊँची-नीची श्रेणियाँ थीं; उसमें कुछ काम छोटे माने जाते थे, कुछ बड़े। फावड़ा लेकर मिट्टी खोदनेवाले और कलम लेकर वेदांतसूत्र लिखने- वाले के काम एक ही कोटि के नहीं माने जाते थे। ऐसे दो काम अब भी एक दृष्टि से नहीं देखे जाते। लोक-दृष्टि उनमें भेद कर ही लेती है। इस भेद को किसी प्रकार की चिकनी-चुपड़ी भाषा या पाषंड नहीं मिटा सकता। इस भेद के रहते भी- बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद-पथ लोग। चलहिं सदा पावहिं सुख नहि भय सेोक न रोग ॥ छोटे समझे जानेवाले काम करनेवाले बड़े काम करनेवालों को ईर्ष्या और द्वेष की दृष्टि से क्यों नहीं देखते थे ? वे यह क्यों नहीं कहते थे कि 'हम क्यों फावड़ा चलावें, क्यों दूकान पर बैठे ? भूमि के अधिकारी क्यों न बनें ? गद्दी लगाकर धर्म-सभा में क्यों न बैठे ?' समाज को अव्यवस्थित करनेवाले इस भाव को रोकनेवाली पहली बात तो थी समाज के प्रति कर्त्तव्य के भार का नीची श्रेणियों में जाकर क्रमश: कम होना। ब्राह्मणों और क्षत्रियों को लोकहित के लिये अपने व्यक्तिगत सुख का हर घड़ी त्याग करने के लिये तैयार रहना पड़ता था। ब्राह्मणों को तो सदा अपने व्यक्तिगत सांसारिक सुख की मात्रा कम रखनी पड़ती थी। क्षत्रियों को अवसर-विशेष पर अपना सर्वस्व-अपने प्राण तक -छोड़ने के लिये उद्यत होना पड़ता था। शेष वर्गों को अपने व्यक्तिगत या पारिवा- रिक सुख की व्यवस्था के लिये सब अवस्थाओं में पूरा अवकाश रहता था। अत: उच्च वर्गों में अधिक मान या अधिक अधिकार के साथ अधिक कठिन कर्तव्यों की योजना और निम्न वर्गों में कम