पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/८४

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८० गोस्वामी तुलसीदास समझ पाते हैं उतने ही के लिये इसे पढ़ते हैं। कथाएँ तो और भी कही जाती हैं; पर जहाँ सबसे अधिक श्रोता देखिए और उन्हें रोते और हँसते पाइए, वहाँ समझिए कि तुलसीकृत रामायण हो रही है। साधारण जनता के मानस पर तुलसी के 'मानस' का अधिकार इतने ही से समझा जा सकता है। इसी एक ग्रंथ से जन-साधारण को नीति का उपदेश, सत्कर्म की उत्तेजना, दुःख में धैर्य, आनंदोत्सव में उत्साह, कठिन स्थिति को पार करने का बल सब कुछ प्राप्त होता है। यह उनके जीवन का साथी हो गया जिस धूमधाम से इस ग्रंथ की प्रस्तावना उठती है उसे देखते ही इसके महत्त्व का आभास मिलने लगता है। ऐसे दृष्टि-विस्तार के साथ, जगत् की ऐसी गभीर समीक्षा के साथ और किसी ग्रंथ की प्रस्तावना नहीं लिखी गई। रामायणियों में प्रसिद्ध है कि 'बाल' के आदि, 'अयोध्या' के मध्य और 'उत्तर' के अंत की गभी- रता की थाह डूबने से मिलती है। बात भी कुछ ऐसी ही है। मनुष्य-जीवन की दशा के हिसाब से देखें तो 'बालकांड' में आनंदो- त्सव अपनी हद को पहुँचता है; 'अयोध्या' में गार्हस्थ्य की विषम स्थिति सामने आती है; 'अरण्य, 'किष्किंधा' और 'सुंदर' कर्म और उद्योग का पक्ष प्रतिबिंबित करते हैं तथा 'लंका' में और 'उत्तर' में कर्म की चरम सीमा, विजय और विभूति का चित्र दिखाई पड़ता है। जैसा कि कहा जा चुका है, 'मानस' में तुलसीदासजी धर्मो- पदेष्टा और नीतिकार के रूप में भी सामने आते हैं। वह ग्रंथ एक धर्म-ग्रंथ के रूप में भी लिखा गया और माना जाता है। इससे शुद्ध काव्य की दृष्टि से देखने पर उसके बहुत से प्रसंग और वर्णन खटकते हैं; जैसे, पातिव्रत और मित्रधर्म के उपदेश, उत्तरकांड में गरुडपुराण के ढंग का कर्मों का ऐसा फलाफल-कथन- ,