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गो-दान
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उखाड़ने आयी होगी। न जाने क्यों इन लोगों की नीयत इतनी खोटी है। सारे गाँव से अच्छा पहनते हैं,सारे गाँव से अच्छा खाते हैं,घर में हजारों रुपए गड़े हैं,लेन-देन करते हैं, ड्योढ़ी-सवाई चलाते हैं,घूस लेते हैं,दस्तूरी लेते हैं,एक-न-एक मामला खड़ा करके हमा-सुमा को पीसते ही रहते हैं,फिर भी नीयत का यह हाल! बाप जैसा होगा,वैसी ही सन्तान भी होगी। और आप नहीं आते,औरतों को भेजते हैं। अभी उठकर हाथ पकड़ लूँ तो क्या पानी रह जाय। नीच कहने को नीच हैं; जो ऊँचे हैं,उनका मन तो और नीचा है। औरत जात का हाथ पकड़ते भी तो नहीं बनता:आँखों देखकर मक्खी निगलनी पड़ती है। उखाड़ ले भाई,जितना तेरा जी चाहे। समझ ले,मैं नही हूँ। बड़े आदमी अपनी लाज न रखें,छोटों को तो उनकी लाज रखनी ही पड़ती है।

मगर नहीं,यह तो धनिया है। पुकार रही है।

धनिया ने पुकारा--सो गये कि जागते हो?

होरी झटपट उठा और मॅडै़या के बाहर निकल आया। आज मालूम होता है,देवी प्रसन्न हो गयी,उसे वरदान देने आयी हैं,इसके साथ ही इस बादल-बूंँदी और जाड़े-पाले में इतनी रात गये उसका आना शंकाप्रद भी था। ज़रूर कोई-न-कोई बात हुई है।

बोला--ठण्डी के मारे नींद भी आती है? तू इस जाड़े -पाले में कैमे आयी? कुसल तो है?

'हांँ सब कुसल है।'

'गोबर को भेजकर मुझे क्यों नहीं बुलवा लिया।'

धनिया ने कोई उत्तर न दिया। मॅडै़या में आकर पुआल पर बैठती हुई बोली--गोबर ने तो मुँह में कालिख लगा दी, उसकी करनी क्या पूछते हो। जिस बात को डरती थी,वह होकर रही।

'क्या हुआ क्या? किसी से मार-पीट कर बैठा?'

'अब मैं जानूंँ,क्या कर बैठा,चलकर पूछो उसी राँड़ से ?'

'किस राँड़ से? क्या कहती है तू? बौरा तो नहीं गयी?'

'हाँ बौरा क्यों न जाऊंँगी। बात ही ऐसी हुई है कि छाती दुगुनी हो जाय।'

होरी के मन में प्रकाश की एक लम्बी रेखा ने प्रवेश किया।

'साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती। किस राँड़ को कह रही है?'

'उसी झुनिया को,और किसको!'

'तो झुनिया क्या यहाँ आयी है?'

'और कहाँ जाती,पूछता कौन?'

'गोबर क्या घर में नही है?'

'गोबर का कहीं पता नहीं। जाने कहाँ भाग गया। इसे पाँच महीने का पेट है।'

होरी सब कुछ समझ गया। गोबर को बार-बार अहिगने जाते देखकर वह खटका था ज़रूर;मगर उसे ऐसा खिलाड़ी न समझता था। युवकों में कुछ रसिकता होती ही है,इसमें कोई नयी बात नहीं। मगर जिस रूई के गाले को उसने नीले आकाश में हवा के