पृष्ठ:चंदायन.djvu/१०१

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(१) ठाकुर-क्षत्रियोंकी उपाधि, मोजपुरी-अवधी आदि प्रदेशोंम यह क्षत्रिय जातिका योधक है। परजा पानि-सेवाकार्य करनेसले रोग। (६) खोर-गली, पस्ता, मार्ग । हीर-टटोलना, हूँदना । (७) तेस-ऐसा । बा ( क्रिया) है। २७ (रीरेण्ड्स ८) सिफ्ते मजलिसे तरक्शन्दाने गय महर गोयद (राय महरके सैनिकों (१) का वर्णन) राजकुरै के बीस इठानी । हम फुनि तहाँ भैठेहिं जाती ॥१ अति विधवॉस पॅडित ते बड़े । रूपमरार दयी के गढे ॥२ अधरन लागे पान चबाही । मुस मॅह दॉत तडसो जिहें माही ॥३ दान झझ कर बिरुद चुलावहिं । भाटहिं कापर घोर दिवावहिं ॥४ हाथ सरग वीरहिं सर दीन्हें । वीरहिं ऊपर बीरा लीन्हें ॥५ झेतस करे राज नित, मँजहिं सासन गॉउ ।६ देस के डॉड आउ महर कहें, तिहें गउरहें के नॉउ ॥७ टिप्पणी-(१) इस यमकका सन्तोपजनक राठोद्धार सम्भव नहीं हो सका । प्रथम याचनके समय हमने पूर्वपदको 'राज करै कै पेस उठाई' पढ़ा था, पर आगे यमर्को प्रसगमें यह पाठ असगत जान पड़ा । साथ ही यह परिवर्तित पाठ भी सन्दिग्ध है, विशेषरूपसे अन्तिम शन्दका पाठ। उत्तर पदके क्सिी शब्दके पाठसे भी हम सन्तोष नही है। 'तहो'का पाठ थान' और 'भैठहि'का पाठ 'भये तिहि भी हो सस्ता है । पर क्सिी.भी पाठके साथ कोद अर्थ नहा निकलता। विधास-विद्वान । रूपमरार-इस शब्दका प्रयोग रूपका वणन फरते हुए पाविने अनेक स्थानोपर किया है। जायसीने भी पदमावतम इसका प्रयोग किया है। वहाँ इमे 'रूपमुगरी' पढा गया है और वासुदेवशरण अग्रवालने टीका करते हुए दसरा अर्थ 'रूपम कृष्णा मॉति सुन्दर किया है। किन्तु न तो यह पाठ ही टोक लान पडता और न अर्थ ही। चौदहवीं शताब्दीमें कृष्ण रूप-सौन्दय प्रतीक बन गये थे, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। हमारी धारणा है कि इन कवियोंने यहाँ कृष्णवाचक 'मुरारि'का प्रयोग नहीं किया