पृष्ठ:चंदायन.djvu/१२

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यह भी कहते हैं कि उसकी भापाके विपयमें कुछ लिसना असम्भव है। साराश यह कि उन्हें दाऊदकी भाषाके सम्बन्धमें कोई जानकारी न थी । दो अन्योंकी कल्पनाका आधार तो स्पष्ट ही है । उसके सम्बन्धमें कुछ कहना अपेक्षित नहीं । १९३६ ई० में हिन्दीका पहला शोध निवन्ध पीताम्बरदत्त वर्थवालात द निर्गुण स्कूल ऑफ हिन्दी पोयद्री प्रकाशित हुआ । उन्होंने दाऊदकी चर्चा इन शब्दों में की- सबसे पुराना ज्ञात प्रेमाख्यानक कवि मुल्ला दाऊद मालूम होता है। जो अलाउद्दीनके राजत्वकाल वि० सं० १४९७ (१४३९ ई०) के आसपास विद्यमान था। परन्तु मुल्ला दाऊद भी आदि प्रेमाख्यानक कवि था या नहीं कह नहीं सकते। उसकी नूरक-चन्दाकी कहानीका हमें नाम ही मालूम है।' आधुनिक पद्धतिसे शोध-निबन्ध प्रस्तुत करते हुए भी पर्थवाल ने पुरानी परिपाटीका ही अनुसरण किया और कोई सन्दर्भ नहीं दिया, जिससे उनके कथनका सून जाना जा सरे। उनके कथनमें मिश्रवन्धु से इतनी ही मिन्नता है कि उन्होंने दाऊदमा अस्तित्व अलाउद्दीन खिलजीके समयमे यताया और उनका समय वि० सं० १४९७ दिया । देसनेमे यह बात नयी और महत्त्वपूर्ण जान पड़ती है, क्योंकि इसके अनुसार दाऊदका समय मिश्रवन्धुके बताये समयसे सौ बरससे अधिक पीछे ठहरता है। किन्तु ध्यानसे देसनेपर वर्थवालके इस कयनका ऐतिहासिक विरोध स्पष्ट झल्क उठता है । वि० स० १४९७ (१४१९ ई०)में अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली- के तख्तपर न विरान कर स्वर्गके दरवारमें हाजिरी दे रहा था। उस समय दिल्ली में सैयदवशीय सुल्तान मुबारिकशाह (द्वितीय)का शासन था। इस तिथिके अनुसार दाऊद आदि प्रेमारव्यानक कवि नहीं ठहरते । कुतवनकी मिरगावति इस तिथिसे पइलेकी रचना है। यह जानकारी रामचन्द्र शुक्ल बहुत पहले दे चुके थे। यह बात वर्थवालको ज्ञात न रही हो, यह बुद्धिग्राह्य नहीं है। अतः अधिक सम्भावना इस याती है कि वर्थवाल ने अपने मूल निवन्ध में दाऊदके लिए अलाउद्दीनरी सम- सामसि ही कोई तिथि (वि० स० १३५४-१३७४ अर्थात् १२९६-१३१६६० के बीच) दी होगी । हो सकता है कि रिसोरे प्रमादसे प्रसागित ग्रन्थ में १२९७८० ने वि० स० १४९७ का रूप ले लिया हो । तथ्य जो हो, तिथिका पिसी प्रसार समाधान कर लेने पर भी प्रश्न उटता है कि पर्थवालो दाऊद और अलाउद्दीनको समसामायिस्ताका ज्ञान कहाँसे हुआ । इसा भी उत्तर कठिन नहीं है। अलाउद्दीन और अमीर खुसरोकी समसामयिक्ता प्रसिद्ध ही है । अतः वर्थवालने मिश्रवन्धुसे तथ्य ग्रहण कर अपनी शोध बुद्धिका उपयोग किया और खुसरोरी जगह अलाउद्दीनका नाम लेकर मिश्रवन्धुकी यातको नये ढगसे कह दिया। वर्थवालरे शेव निवन्धवे पश्चात् १९३८ ई० में रामकुमार वर्माका शोध- निबन्ध हिन्दी साहित्यका आलोचनात्मक इतिहास प्रमागर्म आया । राम- १. हिन्दी काव्यमें निर्गुण मन्प्रदाय, म० २००७, लखनऊ, पृ० २०.२१ ।