पृष्ठ:चंदायन.djvu/२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१०
 

बम्बई (भोपाल) वाले चन्दायनके पृष्ठों के पाठोद्धार (पारसी लिपिसे नागराक्षरों में रूपान्तरित करने) का काम समाप्त कर उसके पाठके स्वरूपका अन्तिम निश्चय कर ही रहा था कि माताप्रसाद गुप्तने प्रयाग विश्वविद्यालयके माध्यमसे और विश्वनाथ प्रसादने आगरा विश्वविद्याल्यके हिन्दी विद्यापीठके माध्यमसे सम्पईवाली प्रतिके पोटो-प्रिटकी माँग की। तब ज्ञात हुआ कि वे दोनों विद्वान भी सयुक्त रूपसे अन्य दो प्रतियों के सहारे चन्दायनपर काम कर रहे हैं। चूंकि मै बम्यवाली प्रति पर काम कर रहा था, सिद्धान्ततः सग्रहालयसे उन्हें उसके पोटो प्रिंट आदि नहीं दिये जा सस्ते थे। पिन्तु यह मानकर कि ये लोग हिन्दी साहित्यके माने-जाने विद्वान हैं, मेरी अपेक्षा वे इस ग्रन्धके साथ अधिक न्याय कर सकेगे, मैंने आगे कार्य करना स्थगित कर दिया और उनकी माँगोंके अनुसार प्रयाग विश्वविद्यालयको चन्दायनके पृष्ठोके फोटो- नेगेटिव और आगरा हिन्दी विद्यापीठको पोटो प्रिंट भिजवा दिये गये। कुछ काल पश्चात् माताप्रसाद गमने सग्रहालयके डाइरेक्टर मोतीचन्द्रको लिसा कि बम्बईवाली प्रतिया मेरा तैयार क्यिा हुआ पाठ भी उन्हें भेज दिया जाय । मैने उसका कार्य स्थगित कर दिया था, इस कारण उसके प्रति मेरा कोई मोह न या । मैने अपने पाटयी एक टाइप की हुई प्रति उन्हे भेज दी। कुछ दिन पश्चात् असकरीका एक रेरा देखने में आया, जिसमे उन्होंने यम्यईवाली प्रति (जिसकी चर्चा उन्होंने भोपाल प्रतिके रूपमे किया है) की एक टाइप की हुई पापी उदयशंकर गात्री (आगरा हिन्दी विद्यापीटके एक अधिकारी) द्वारा प्राप्त होनेवी यात कही थी और उसके कुछ उद्धरण भी दिये थे।' असकरीने जिस राइप की हुई प्रतिको देखा, यह प्रति मेरी वाली प्रति थी अथवा विश्वनाथ प्रसाद और माताप्रसाद गुप्तकी अपनी तैयार की हुई कोई स्वतन्त्र प्रति, इसके निर्णय और विवादमे गनेकी आवश्यकता नहीं । कहना फेवल इतना ही है कि राग्रहालयसे विसीको जब किसी वस्तुको प्रतिलिपि या फोटो आदि दी जाती है तो उस व्यक्ति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह उसपर स्वय काम करेगा और उरा सामग्रीको अपनेतक ही सीमित रखेगा और प्रकारानसे पूर्व सग्रहाल्यके अधिकारियोसे समुचित अनुमति ले लेगा । पर यह सौजन्य वे लोग निभा न सके। इसी बीच ग्वालियरके हरिहर निवास द्विवेदी यम्बई आये। वे उन दिनों पन्दायनकी कथासे सम्बन्ध रखनेवाले एक अन्य काव्य ग्रन्थ मैनासतपर काम कर रहे थे। दुराग्रह करके ये भी मेरे वाचनकी एक प्रति ले गये। ले जाते समय उन्होंने बार-बार आश्वासन दिया था कि वे मेरे वाचनको अपनेतक ही सीमित रसेंगे और उसे प्रकाशित न करेंगे और मेरी प्रति मुझे शीघ्र ही लौटा देंगे; मिन्तु ग्वालियर जाते ही ये अपना वचन भूल गये । अपनी पुस्तकमे उन्होंने मेरे वाचनको अनुचित दगसे उद्धृत तो किया ही; बार-बार तकाजा करनेपर भी मेरी प्रति लौटाना तो दूर पनोत्तर देनेका सौजन्य भी उनसे न हो सका। १. पटना युनिवरिटी जर्नल, १९६०६०, पृ० ६३ ।