पृष्ठ:चंदायन.djvu/२४८

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२३४ टिप्पणी-(२) घरे-धडे। (६) अगरन-अगणित । (७) छिनार -छिनाल, पुश्चली, व्यभिचारिणी । लोक भाषामें नारीकै प्रति एक अति प्रचल्ति गाली। २७९ (रोलैण्ड्स २२३) तलबीदने चाँदा निरस्पत रा व परित्तादने बर लोरक (चाँदका विरस्पतको दुलारर लोरकके पास भेजना) चॉद चिरस्पत सौ अस कहा । भासउँ कुछ जो चित महँ अहा ॥१ सरग हुतं धरि परा उठाऊ । उठा सबद जग मीत न काऊ २ अब यह पात देस बहिराई । औधी डॉकी रहहि लुकाई ॥३ हों जो सुनतेउँ चोल परावा । जिंह डरेउँ सो आगें आवा ॥४ अब हों परिहों पेट कटारी । के दुस सहब देस के गारी १५ लोर कहसि बिरस्पत, महिं ल नगर पराइ ।६ आज राति लै निकरो, नतुर मरी भोर चिम साइ ७ टिप्पणी-(५) सहय-सहुँगी। (७) नर-नदी तो, जन्यथा । २८० (रोरण्ड्स २२५) गुफ्तने रिस्पत लोक रा सुसने बॉदा (विरस्पतका रक्से चाँदका सन्देश कहना ) आइ निरस्पत कहा सेंदेस । लोर चाँद लई [जा'] परदेस ॥१ सावन लाग दइउ घिर आये । पाउम पन्थ न हॉडी जाये ॥२ नार खोर नद पानि भरि रहे। यह समार जहाँ लह अहे ॥३ इहँ लाग घर बादर रन । दादुर रहिं बीज लौफनै ॥४ पाउस पन्थ कउन नर गाहै । जीउ डराड हिय फाटड चाहे ॥५