पृष्ठ:चंदायन.djvu/२५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२४४
 

Pr २९२ (मनेर १४७१) दास्तान आमदने चाँदा अज रे कल व रस्तन (चाँदका महरसे निकलकर रवाना होना) लै लोरफ घर चाँहर दिखावा । देखि चॉद कुछ चितहिं न लावा ॥१ चलहु लोर पुनि हो भिनसारा । लागि गुहार सब लोग हमारा ॥२ मत सुन पावड पावन पीरू । विरह दगध पुनि मोर सरीरू ॥३ ओहि देखत कोइ जाड न पारड । योलत बोल मॉड (मह) मारड ॥४ अरजुन जैस धनुक कर गहई । ओहिकै हाक न मनुसे सहही ॥५ कहहि लोर सुनहु तुम्ह चॉदा, अइसे महि न डराउ १६ . राउ रूपचंद गॉठा मारेउँ, अस वावन पर जाउ ७ मूलपाठ-मह । टिप्पणी-(२) भिनसारा-प्रात काल, सुबह । (३)गुहार-पुकार। (५) भोहिकै-उसका। (६) बहस-इम प्रकार । ___२९३ (मनेर १४:१४ ) दास्तान शमीरे व सिपरे लोरक गिरफ्तने मैंन (मैनाका रोककी तरवार और दार रेरेना) ओडन साँड मैना लै सूती । संह' निसि जागि विरह के भृती ॥१ दुन्हु मलखम्भहि रोइ संचारा । करहिं महत जनु उटइ झनकारा ॥२ मैंना माँजरि रूप मरारी । उहँ गुन कितहु न देरोउँ नारी ॥३ ओटन साँड क्न्दु अम धरा । नैन नीर चस काजर झरा ॥४ काउ ऊँच न बोलसि चोलू । औगुन करत राख मोर तोल् ॥५ अति माप मयानी, औ बुलवन्ती नारि मंजोग ।६ तुम्ह चाँदा मन राता, महिं परा विजोग ॥७