पृष्ठ:चंदायन.djvu/३२२

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९-सभ । १०-तन । ११-जरते । १२-~आग न । १३- महारथ औ बटयार । १४-सिरजन गये बेपार । टिप्पणी-(२) दन्द-दाद । उदेग-उद्वेग । उचाट-खिन्नता । (प्रथम वाचनम येशन्द "दण्डादीक अजात' पढ़े गये थे। पर उनका कोई अर्थ नहीं जान पग । अन्य कोई पाठ समझमें नहीं आता। मिरगावतिमें कह स्थलोंपर इस वाक्याश का प्रयोग हुआ है । भारत कला भवन काशीमें इसके कैथी लिपिम लिरिसत कुछ सचित्र पृष्ठ है । उसमें यही पाट है। उसी आधारपर हमने प्रस्तुत पाट महण दिया है, किन्तु हम इस पाट और अर्थसे स तोप नहीं है । (३) आय-अर्थ । दरब-द्रव्य । अरथ दरप-धन दौलत । बाखर- घर । (४) अहर दानौर रात दिन । दौ---अग्नि । (१) 4-से । जरते-जलते हुए । (६) वटवार -बटमार, रास्तम लूग्नेवाले, टोरे । ४१८ (रेण्ड्स २९८ बम्बई ५१) वैश्यिते दर पिराक सिरजन गोयद (सिरजनकी विरह अवस्था) मिरिग जो पन्य लॉथि कहुँ जाही' । म घरन होइ जाई पराही ११ जाँवत पंसि उरधि उडि गये । किशन बरन कोइला जरि' भये ॥२ चालहु मिरजन होई सोतारा । करिया दहै नाउ गुनधारा ॥३ सायर दाहि मॅछि दहिदहे । दहे कॅरजना जलहर अहे १४ अइस झार बिरह के भई । धरती दाहि गगन लहि गड ॥५ सरग चँदरमॅहि मेला, औ धूम पंसि भइ कार"।६ सिरजन पनिज तुम्हारे", उपरे यूड न प*]र ||७ पाठान्तर-यम्बई प्रति- शीर्षक-अज पिराके मेना आहुवान सोस्तन व जानस्यन दस्ती व माहियान दर आप सोख्तन (मैनारे विरहसे हिरनों, पशुओं और जलचरांचा जल उठना)