पृष्ठ:चंदायन.djvu/३२४

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३१५ पाटन नगर पाई औधारा 1 देखि धौराहर इंगुर द्वारा ॥र सिरजन बस्तर साज पहिराये । नरियर गोया थार भराये ॥३ लौंग खजूर चिरौंजी लिये । सिरजन भेंट लोर कहँ गये ॥४ पूछत गव. लोर दुआरा । प्रतिहार भरि चैठे यारा ॥५ पात जनाबहु पीर कहँ, परदेसी एक आयउ ६ सोबत लोर धौराहर, पँवरी जाइ जगायउ ॥७ टिप्पणी-(२) औधारा-रहरा, प्रवेश किया । दारा-ढला हुआ। (३) यस्तर वस्त्र । माज-पहन कर । पहिराये--निकले । थार-याल। (५) प्रतिहार-द्वारपाल । ४२० (रीलैण्ड्स ३०० ) थेदार कर्दन दरखाने लोरक रा ( द्वारपालका लोरकको जगाना) खिन एक नैन नींद महँ आई । गये पँवारि]या आई जगाई ॥१ वॉभन एक पँवर है ठादा । तिलक दुआदस मस्तक काढ़ा ॥२ पतरै कॉखि हाथ पैसाखी । अन्त कान दुन्ह पहुँची राखी ॥३ जनेउ कॉध करधौत लखाई । और धूत माथे पहिरायी ॥४ रिंग जदु साम अथरवन पढ़ा । आइ पुरन्तर रूरे चढ़ा ॥५ पंडित बड़ा विधवासक, पोथा पावि पुरान १६ चिरह भाख लै भारी, दूसर भखा न जान ॥७ टिप्पणी-(२) तिलक दुआदस-वैष्णव समुदाय के कतिपय लोग यारह तिलक मस्तक, नासिका, दोनों कपोली, वनस्थल, दोनों भुजाओ, नाभि, दोनो बधों और पीछे पीठ पर निक् स्थान पर लगाते है। इस प्रकार का तिलक प्रामण द्वारा लगानेशा उल्लेप वीमलदेव रासो (छन्द १०२) और पदमायत (४०६३) में भी है। (३) पतरे-पनाकार पुस्तकः। कॉखि-बाल में। बसायी-बगल में लगाकर चलने का डण्डा ! करधौत-पलधौत, स्वच्छ, सफेद ।